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भगवान यथाशीघ्र योगातीत-योगरहित अवस्था में अर्थात् १४ वे गुणस्थान पर अयोगी अवस्था में पहुँचने की तैयारी करते हैं । केवली भगवान १३ वे गुणस्थान पर शुक्लध्यान के तीसरे भेद के ध्यान साधना में रहते हैं । योग निरोध की क्रिया भी इसी ध्यान में करते
हैं।
अब शुक्लध्यान के चौथे भेद का ध्यान शुरू होता है।
तत्रानिवृत्तिशब्दान्तं, समुच्छिन्नक्रियात्मकम्।.. चतुर्थं भवति ध्यान-मयोगिपरमेष्ठिनः ।। १०५ ।। समुच्छिन्ना क्रिया यत्र सूक्ष्मयोगात्मिकापि हि।
समुच्छिन्नक्रियं प्रोक्तं तद्वारं मुक्तिवेश्मनः ।। १०६ ।। व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक ४ था शुक्लध्यान
तत्त्वार्थकार ने चौथे प्रकार के शुक्लध्यान का नाम व्युपरत क्रियानिवृत्ति रखा है। यहाँ गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महापुरुष समुच्छिन्न क्रिया नाम रखते हैं। शब्दभिन्न परन्तु तात्पर्य, हेतु और अर्थ सब एक ही है । व्युपरतक्रियानिवृत्ति शब्द में दो शब्दों की रचना है । १) व्युपरतक्रिया और २) अनिवृत्ति । अर्थात् जिसमें क्रिया सर्वथा रुक गई है, उसे व्युपरतक्रिया कहते हैं । तथा जिसमें पतन नहीं है वह अनिवृत्ति । जिसमें मन आदि तीनों योगों का सर्वथा निरोध हो जाता है उसके कारण अब किसी भी प्रकार की क्रिया नहीं रहती है। तथा ध्यान करनेवाले ध्याता के परिणामों का कभी पतन ही नहीं होता है। ऐसे ध्यान विशेष को व्युपरत क्रियानिवृत्ति प्रकार का चौथा शुक्लध्यान कहते हैं । जिस ध्यान में सूक्ष्मयोगात्मक अर्थात् सूक्ष्म काययोग रूप क्रिया भी निश्चय रूप से स्पष्ट रूप से सर्वथा नहीं रहती है । समुच्छिन्ना अर्थात् सर्वथा निवृत्त हो चुकी है, अर्थात् सर्वथा क्रिया का अभाव ही हो चुका है उसे समुच्छिन्न क्रिया कहते हैं। ऐसी ध्यानावस्था शुक्लध्यान के चौथे भेद की कहलाती है। आपको आश्चर्य इस बात का लगेगा कि इस प्रकार का चौथा शुक्लध्यान मोक्षपुरी में जाने के लिए प्रवेश द्वार के समान है । इसलिए ग्रन्थकार ने श्लोक में “मुक्तिवेश्मनः” शब्द का प्रयोग किया है । मोक्षरूपी महल के प्रवेश द्वार समान हैं। कहने का कारण यही है कि... बस, इस प्रकार के चौथे शुक्लध्यान के द्वारा सीधे तुरंत चेतना-जीव मुक्तिपुरी में ही जाता है ।
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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