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________________ बादर (स्थूल) काययोग में अर्थात् पहले जैसे बादर काय योग में रहते थे वैसे ही रहकर वर्तते हुए... बादर वचनयोग और बादर मनोयोग इन दोनों योगों को क्रमशः सूक्ष्म करते जाते हैं । इस तरह मनोयोग और वचनयोग दोनों योग सूक्ष्म हो जाने के पश्चात् उन सूक्ष्म मन-वचन योग में रहकर बादर काययोग का त्याग करके, उस बादर काययोग को अब सूक्ष्म करते हैं । अब पुनः क्षणभर अर्थात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उस अत्यन्त सूक्ष्म हुए काययोग में रहकर शीघ्र सूक्ष्म वचनयोग और सूक्ष्म मनोयोग का निग्रह करते हैं, अर्थात् सर्वथा उस योग की सत्ता का अभाव करते हैं । इस तरह योग का अभाव करना यही योग निरोध की प्रक्रिया है। अब इतना कर लेने के पश्चात् पुनः वे केवली भगवान सूक्ष्म काययोग में रहकर ...प्रकट रूप से सूक्ष्मक्रियावाले और ज्ञानरूप ऐसे अपने आत्मस्वरूप का स्वयं अनुभव करते हैं । इस प्रकार योगनिरोध की क्रिया की जाती है। इस योगनिरोध के करने से लेश्या का निरोध हो जाता है । तथा योग निमित्तक बंध में जो शाता वेदनीय कर्म का बंध होता था उसका नाश हो जाता है । वह भी बंद हो जाता है । १३ वे गुणस्थान पर केवली भगवंत सयोगी सलेश्य कहलाते हैं । (होते हैं ।) लेकिन योग निरोध हो जाने के पश्चात्...के १४ वे गुणस्थान पर.... अयोगी एवं अलेश्य हो जाते हैं। यदि प्रतिसमय योग चालु रहे तो योगनिमित्तक कर्मबंध भी निरंतर चालु ही रहेगा। यदि इस तरह योगज कर्मबंध भी सतत चालू ही रहेगा तो...किसी केवली का भी कभी मोक्ष नहीं होगा। इसलिए योग निरोध करना अनिवार्य है। समुद्घात करना सबके लिए अनिवार्य नहीं है, लेकिन... योग निरोध सबके लिए करना अनिवार्य है। तभी मुक्ति होगी। समुद्घात में जैसे अंतःकृद् केवली के लिए प्राधान्यरूप से करना अनिवार्य रहता है । तीर्थंकरादि के लिए अनिवार्य नहीं रहता है। परन्तु योग निरोध की क्रिया तो तीर्थंकरों को तथा अन्य केवलियों को भी करनी ही पड़ती है। शैलेशीकरण की प्रक्रिया. . शैलेशीकरणारम्भी, वपुर्योगे ससूक्ष्मके। तिष्ठन्नूास्पदं शीघं, योगातीतं यियासति ॥ १०२ ।। अब अन्त में शैलेशीकरण करने की बात आती है । १३ वे गुणस्थान पर दीर्घकाल तक विचरते हुए केवलज्ञानी महापुरुष अन्तिम अंतर्मुहूर्त काल में आते हैं । इस अन्तर्मुहूर्त काल में योग निरोध की क्रिया करके अपने तीनों योगों को रुंधते हैं । इस अन्तर्मुहूर्त काल में आते-आते अन्त में अन्तिम समय पर आते हैं। सूक्ष्म काय योग में रहे हुए सर्वज्ञ १३४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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