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________________ यदि हम इन तीनों योगों का सम्यग् निग्रह नहीं कर सके और यदि इनकी प्रवृत्ति-उपयोग भी नहीं सुधार सके तो ये आत्मा को सदा ही कर्म बंधाते रहेंगे। १) योगाश्रव-योगजबंध- मन, वचन और काया इन तीनों योगों द्वारा जीव बाह्याकाश में रहे हुए कार्मण वर्गणा के अनन्त पुद्गल परमाणुओं को खींचकर-आकर्षित कर आत्म प्रदेशों में लाता है । यह योगाश्रव की प्रक्रिया है ।आश्रव के पश्चात् बंध होता है । उसे योगज बंध कहते हैं । इसमें मनादि तीनों योगों का आत्मा के अनुरूप-अनुकुल उपयोग न होने से कर्म बंध होता है । इस तरह मनादि तीनों योग बंध हेतु का काम करते हैं और प्रवृत्ति रूप विचारादि द्वारा सतत कर्मबंध कराते हैं । तत्त्वार्थ में स्पष्ट किया है कि "काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः" ॥ ये काया, वचन और मन तीनों योग से.. आत्मा को कर्मों का योग होता है । कर्मबंध होता है इससे। २) योग निग्रह- अब सम्यग् रूप से अच्छी तरह योग निग्रह करना है । याद रखिए, ये जो मनादि तीनों योग आत्मा को कर्म बंधाने में सहयोगी-उपयोगी थे वे ही आत्मा के लिए कर्मक्षय-निर्जरा कराने में भी यदि अच्छी तरह सहयोगी बन जाय तो कर्मों की निर्जरा कराते हैं । आखिर ये तीनों योग जड हैं । चेतनात्मा ने अपने लिये बनाए हैं । परन्तु इन योगों का सदुपयोग करने के बजाय जीव ने संसारी अवस्था में... ज्यादा से ज्यादा दुरुपयोग ही किया है। इसी से कर्म बंध ज्यादा हुआ है । सदुपयोग ही योग निग्रह है। इस निग्रह की प्रक्रिया से कर्माश्रव का संवरण होगा और फिर निर्जरा होगी। संवरण में नए कर्मों का आश्रवण, आत्मा में आगमन नहीं होगा। तथा जो पहले के लगे हुए कर्म हैं उनकी निर्जरा कर सकता है। इसलिए योगों का उपयोग सम्यग् करना चाहिए । “उपयोग" शब्द आत्मा के अपने ज्ञान-दर्शन के उपयोग भाव में रहने का भी वाचक है । आत्मगुणों की स्पष्ट अनुभूति में जीने से विशेष कर्मों की निर्जरा होती है । १३ वे गुणस्थान पर्यन्त योगज बंध जो होता था उसका भी अब अन्त में योग निरोध कर देने से वह भी बंद हो जाता है । यह अन्तिम ... कक्षा का बंध हेतु था यह भी ऐर्यापथिक कर्म बंध १३ वे गणस्थान पर कराता था, इसलिए १३ वे गुणस्थान के अन्त काल में आकर... योग निरोध करते हैं। तब जाकर अयोगी बनते हैं । इस प्रकार की योग निरोध करने की प्रक्रिया में क्या करते हैं? कैसे करते हैं ? यह दर्शाते हैं योग निरोध-१३ वे गुणस्थान पर... सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति नामक ३ रे प्रकार का शुक्लध्यान करनेवाले सयोगी केवली भगवान आत्मवीर्य की अचिन्त्य शक्ति द्वारा विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १३४५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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