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________________ एक बात स्पष्ट होती है कि- अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं- एक स्थिर अध्यवसाय' और दूसरे ‘अस्थिर अध्यवसाय' हमारे मनोयोग से निरन्तर चलते हुए विचार जो अखण्ड रूप से निरंतर चलते ही रहते हैं, धाराबद्ध होने के कारण विचारधारा कहलाती है । एक-दो विचार हो तो विचार कह सकते हैं लेकिन क्रमशः सैंकडों अनगिनत विचार आते ही रहते हैं । विचारों का आधार विषयों पर निर्भर है । विषय ज्ञेय पदार्थों पर अवलंबित है । इसलिए एक ही विषय के एक ही दिशा में निरंतर विचार आते ही रहे तो सर्वोत्तम है । लेकिन वैसा होता नहीं है । अक्सर विचारों का समूह जो उमड़ता है वह अनेक ज्ञेय पदार्थों के विषयों पर मन के छलांग लगाकर भागते रहने के कारण वैसा होता है । विचारों की शृंखला चलती ही रहती है। जैसे एक फूल हो तो तो ठीक है उस एक का ही विचार आए। लेकिन फूलों की माला बने तो उसमें रंग-बिरंगे कई किसम के भिन्न-भिन्न फूल रहते हैं । उन सबको एक साथ देखते-देखते फूलों की भिन्न-भिन्न जातियाँ, भिन्न-भिन्न रंग तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की सुगंध आती है। इस तरह रंग, जाति और सुगंध तीनों विषय एक साथ एकत्रित हो चुके हैं। अब आप ही सोचिए सबके विचार एक साथ आते रहेंगे तो मन स्थिर कहाँ किस पर होगा? अरे । भौंरा अनेक फूल होने के बावजूद भी किसी एक फूल पर थोडी देर तक तो स्थिर होकर बैठता ही है, तो ही पराग कण संचित कर पाएगा लेकिन यह मन-भ्रमर क्षण मात्र भी कहाँ किसी एक पर स्थिर हो ही पाता है ? अतः विचार प्रवाहबद्ध आते ही रहते हैं । स्थिरता नहीं आती हैं । विचार कहीं किसी एक पर स्थिर हो. तो ध्यान कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें विषय की न्यूनता, क्षेत्र विस्तारादि घटाते-घटाते कम करते हुए निर्धारित किसी एक विषय पर आकर स्थिर होना चाहिए। तब ध्यान बन पाएगा। अतः फूलों के रंगों, जातियों तथा सुगंधादि कई विषय जो इकट्ठे हो चुके हैं उनमें से किसी एक फूल पर केन्द्रित होना चाहिए । अब एक फूल में भी रंग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, सुगंध, जाति भिन्न-भिन्न होती है । अतः इनमें से भी कई अतिरिक्त विषय निकालकर हमें किसी एक विषय पर, एक रंग पर ही केन्द्रित होना चाहिए। बस, एक रंग का एक ही विचार करना चाहिए और उसमें भी उस एक विचार को स्थिर रखकर कुछ समय तक पकडकर रखना चाहिए । बस, यह स्थिर स्थिति ध्यान कहलाएगी। लेकिन स्वैरविहारी मन बन्दर की तरह क्षण-क्षण में एक विषय पर से दूसरे विषय पर छलांग लगाने का आदि बन चुका है । बस, अनादिकालीन इसी आदत के वशीभूत बनकर एक विचार पर स्थिर हो नहीं पाता है । और सैंकडों विषयों पर उछल कूद करते हुए सुख-आनन्द पाने की मस्ती में घूमता है, भटकता है । लेकिन उसे यह मालूम नहीं है कि... उसमें सुख नहीं, मजा नहीं लेकिन दुःख ही मिलनेवाला है। ९९८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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