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साधना में उत्तम कक्षा के संहननों की आवश्यकता रहती है । तद्भव मोक्षगामी जीवों को उत्तम संहननों की आवश्यकता रहती है। क्योंकि उसी भव में यदि मोक्ष में जाना ही हो तो ध्यान योग - तप- कायोत्सर्ग - चारित्र आदि तो अंगीकार करना ही पडेगा । बिना ध्यानादि के तो मोक्ष की प्राप्ति संभव भी नहीं है। अतः उसी भव में मोक्ष में जानेवाले जीवों के लिए उत्तम कक्षा के संहनन होना जरूरी है। पहले ३ संहनन उत्तम कक्षा के हैं, इसमें से प्रथम संहनन धारण करनेवाला - स्वामी मोक्ष में जाने के लायक योग्य कहलाता है । जैसे कि तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती - आदि ६३ शलाका महापुरुष ऐसे प्रथम उत्तम संघयणवाले ही होते हैं । इनमें से तीर्थंकर तथा गणधरों का ध्यानादि सर्वोत्कृष्ट कक्षा का रहता है | अतः वे तो अनिवार्य रूप से मोक्ष में जाते ही हैं। लेकिन चक्रवर्ती आदि उस कक्षा की ध्यान साधनादि करे, चारित्रादि ग्रहण करे तो मोक्ष गमन की संभावना है । अन्यथा नहीं । इन संघयणों में से आज किसी को उत्तम कक्षा के संघयण प्राप्त नहीं हुए हैं, और फिर भी यदि कहता है कि मैं मोक्ष में जाऊँगा तो निश्चित समझिए कि वह मिथ्या प्रलाप । अतः तदनुरूप योग्यता - पात्रता जो शास्त्रकार महर्षी प्ररूपित करते हैं वह होनी ही चाहिए । इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्रकार महर्षी ने सूत्र में " उत्तम संहनन” विशेषण साथ में जोड़ा है
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मात्र
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यद्यपि " उत्तम संहनन” विशेषण जोडने से तात्पर्य मोक्षगमनोपयोगी ध्यान - योग की आवश्यकता से हैं । मोक्ष अन्तिम फल है, अतः अन्तिम फल की प्राप्ति के लिए अन्तिम कक्षा का ध्यान करना भी उतना ही आवश्यक है। ध्यान तो कई किसम के हैं । मोक्षगमनोपयोगी ध्यान भी है और संसारवर्धक ध्यान भी है । चिन्ता भी ध्यानरूप है और चिन्तन भी ध्यान रूप है । आप कैसा ध्यान करते हैं उस पर आधार रहता है । अतः उत्तम संहनन विशेषण चरम कक्षा के ध्यान - शुक्लध्यान को सूचित करता है । अतः उत्तम कक्षा शुक्लध्यान करने के लिए उत्तम संहनन की उपयोगिता सूत्रकार ने सूचित की हो ऐसा विशेषण के निर्देश से स्पष्ट लगता है ।
'ध्यान का लक्षण - "तत्र ध्यानं - चिन्ता - भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायः ।” ध्यान विचार ग्रन्थकार ने ध्यान के लक्षण में चिन्ता शब्द का प्रयोग चिन्तन के अर्थ में प्रयुक्त किया है । इस से व्याख्या स्पष्ट की है कि- “ चिन्तन और भावना से उत्पन्न हुए स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान कहलाता है ।" यहाँ सरलीकरण करने से यह लक्षण जल्दी समझ में आएगा । तत्त्वों के चिन्तन तथा अनित्यादि भावनाओं पूर्वक अध्यवसाय अर्थात् भाव - विचार जो उत्पन्न होते हैं उनमें यदि स्थिरता आ जाय तो उसे ध्यान कहते हैं । यहाँ
ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास”
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