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है। पहले और दूसरे में कीले का अन्तर है । अतः कीले के आधार पर मजबूती जितनी ज्यादा थी दूसरे में उतनी कम हो गई । और कोई ज्यादा अन्तर नहीं है।
___३) नाराच संहनन- चित्र नं ३ की तरह पहले दूसरे में जो कीला और पट्टा है वह तीसरे में दोनों ही नहीं है । सिर्फ मर्कट बंध है । अतः नाराच नाम दिया है।
तत्त्वार्थ सूत्रकार ने जो सूत्र में “उत्तम संहनन” उत्तम कक्षा के संघयणवाले को ध्यान का अधिकारी बताया है उससे उन्होंने अभिप्रेत आशय से ऊपरोक्त ३ संहनन लिये हैं।
४) अर्ध नाराच संहनन- इसमें कीला, पट्टा आदि कुछ भी नहीं होता है और मात्र मर्कट बंध भी एक तरफ होता है।
५) कीलिका संहनन- देखिए, क्रमशः पहले से मजबूती कम होती होती पाँचवे में तो मात्र कीली के सहारे सिर्फ अस्थि के संधिस्थानों की मजबूती रहती है । बस, और कुछ भी नहीं।
६) सेवात (छेवटुं) संघयण- इसके दो नाम हैं । सेवार्त और छेवटुं दोनों नाम से कहते हैं। इसमें मात्र अस्थियों के दो किनारे सिर्फ एक दूसरे को स्पर्श करते रहे हुए हैं। जैसे उखल में मूसल स्पर्शमात्र करके रहता है वैसे । स्पर्श के कारण छेदस्पृष्ट नाम है । वर्तमान काल के इस पाँचवे आरे के कलियुग में सभी जीवों का यही छट्ठा संहनन बना हुआ है । इसमें अस्थि की किसी भी प्रकार की मजबूती नहीं रहती है । नाम मात्र है । यही कारण है कि आए दिन अस्थि खिसक जाती है। हट जाती है। और कई बार हाडवैद्य वापिस संधिस्थान में सही बैठाते भी हैं। सामान्य रूप से स्नानगृह में साबू के ऊपर पैर फिसल जाए और गिरने मात्र से हड्डी खिसक भी जाती है और कई बार टूट भी जाती है। Bone Fracture तो अक्सर होते रहते हैं।
अब पहले संघयण से क्रमशः नीचे उतरते उतरते आप ही देखिए किस तरह क्रमशः हड्डी की मजबूती कम - कम से कम होती ही जाती है । इसलिए आज का यह शरीर मोक्ष प्राप्ति के अनुकूल भी नहीं रहा । शायद आप सोचेंगे कि- मोक्ष का हड्डी के साथ क्या संबंध है? आपकी बात भी सही है, लेकिन ध्यानादि-योगादि की साधना में ध्यान करना हो, कायोत्सर्ग करना हो, विहार करना हो, पर्यंकासन वीरासन आदि अनेकविध आसन करने हों तो तथा घण्टों तक समाधि में स्थिर बैठना हो, आदि में शरीर की काफी उपयोगिता रहती है। यहाँ तक कि मरणान्त उपसर्ग भी सहन करने हो तो उसके लिए भी संघयण-संस्थानादि की काफी आवश्यकता रहती है। इस तरह ध्यान-योगादि की
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आध्यात्मिक विकास यात्रा