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________________ कर्मों में नाम कर्म शरीर रचना की जिम्मेदारी संभालता है । नाम कर्म की भिन्न भिन्न प्रकार की १०३ प्रकृतियाँ हैं । प्रायः शरीर निर्माण की व्यवस्था यह नाम कर्म करता है । इसमें संहनन नाम कर्म का एक विभाग है । अस्थियों के सन्धिस्थान यह भिन्न भिन्न रूप से जोडता है और उस प्रकार की मजबूती प्रदान करता है । यह स्वरूप आप यहाँ इस चित्र में स्पष्ट रूप से देखकर समझ सकते हो । ये ६ प्रकार इस तरह हैं १) वज्रऋषभ नाराच, २) ऋषभ नाराच, ३) नाराच, ४) अर्धनाराच, ५) कीलिका, और ६) सेवार्त नाम से छः प्रकार के हैं। - १) वज्रऋषभ नाराच संहनन- आपने कभी बन्दरी के बच्चे को उसकी माँ के साथ चिपके हुए देखा ही होगा। कितनी लम्बी छलांग लगाने पर भी.. वह गिरता नहीं है । इतनी मजबूती से बच्चे ने पकडकर रखा है। ठीक उसी तरह अस्थियाँ भी एक दूसरे के साथ मजबूती पूर्वक जुडी हुई रहे यह संहनन का कार्य है । वज्र का अर्थ है कीला, ऋषभ अर्थात् पट्टा और नाराच अर्थात् मर्कट बंध । चित्र नं. १ के अनुसार- दोनों तरफ मर्कटबंध, ऊपर हड्डियों का ही पट्टा, और उसके बीच में आरपार कीला लगा रहे इस तरह तीनों प्रकार की अस्थियों की पक्कड अर्थात् मजबूती को पहला वज्रऋषभ नाराच संघयण कहते हैं। यह सर्वोत्तम कक्षा की मजबूती है । बडी पत्थर की शिला भी ऊपर से गिर जाय तो भी अस्थिसंधिस्थान की ऐसी मजबूती जो न टूटे । याद रखिए, ऐसा पहले वज्रऋषभ नाराच संघयण के शरीरवाले जीव ही मोक्ष में जाने के अधिकारी कहलाते हैं । इन्हें ही मोक्षगामी, मोक्षगमन योग्य देहधारी कहते हैं । तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव-प्रतिवासुदेव आदि छः शलाका पुरुषों, को अनिवार्य रूप से ऐसा शरीर मिलता है। तभी वे तद्भवमोक्षगामी जीव कहलाते हैं । अतः ऐसे मोक्ष में जानेवालों के देह की स्थिति इतनी ज्यादा मजबूत होती है तो फिर मन की मजबूती तो और कितनी ज्यादा होती होगी? जिससे उनका ध्यानादि कितनी उत्तम कक्षा का होता होगा? यद्यपि ध्यान का आधार शरीर नहीं है मन है, लेकिन फिर भी ध्यान-साधनार्थ योग साधना सहयोगी आवश्यक है। जिस योग में अष्टांग योग की प्रक्रिया में आसन भी एक प्रकार है । अतः विविध प्रकार के आसनों में भी घण्टों तक-लम्बी काल अवधि तक स्थिर बैठने या, कायोत्सर्ग में स्थिर रहने का जो अभ्यास होना चाहिए वह तो इसी काय बल से आएगा। उपलब्ध होगा। २) ऋषभ नाराच- चित्र नं २ की तरह दोनों तरफ मर्कटबंध है, और पट्टा भी है लेकिन बीच में कीला नहीं है । वज्र निकल गया । अतः इसे मात्र ऋषभनाराच नाम दिया ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास" ९९५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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