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________________ ध्यान की व्याख्या तत्त्वार्थ सूत्रकार ने एक विशेषण जोडकर ध्यान की व्याख्या इस प्रकार की है“उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" । (९/२७) पू. वाचक मुख्यजी ने यहाँ पर "उत्तमसंहनन” अर्थात् ६ संघयणों में से पहले, दूसरे और तीसरे ऐसे उत्तम संघयणवालों को ही ध्यान का अधिकारी क्यों बताया ? उनके ही वाचक ऐसे विशेषण को जोडने का तात्पर्य अभी तक बुद्धिगम्य नहीं बन पाया। रहस्यार्थ अभी भी आवृत्त ही रहा है । अतः ऐसे उत्तम संघयणवालों का, या इन संहननों से युक्त जो साधक एकाग्ररूप से चिन्ता का निरोध करता है उसको ध्यान कहते हैं । उत्तम संघयण (संहनन) के विषय को भी थोडा समझ लिया जाना अनुसंधान की दृष्टि से उत्तम ही लगता है६ संघयण का सामान्य स्वरूप - - १) वज्र ऋषभ नाराच ४) अर्ध नाराच 2. AMERIAL ५) कीलिका. ALLtdase २) ऋषभ नाराच ६) सेवार्त ३) नाराच Cont Amitrimmername Domadevnets. संघयण या संहनन का सीधा तात्पर्य है अस्थियों के संधान की प्रक्रिया । हमारा जो शरीर बना हुआ है उसमें सिर से पैर तक हड्डियाँ फैली हुई हैं । इनका बहुत बडा आधार है। ये अस्थियाँ कहीं न कहीं एक दूसरे के साथ जुडी हई भी हैं ही । अस्थि संयोजन, या संधान या जुडना काल-काल के क्रम में भिन्न-भिन्न प्रकार का था । वास्तव में तो यह मात्र शरीर निर्माण करते समय शरीर के बनने की क्रिया के काल में होता है । ८ प्रकार के ९९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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