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________________ मन की अस्थिरता-चंचलता का कारण आखिर मन इतना ज्यादा अस्थिर-चंचल-चपल है इसका कारण क्या है ? पहले जिसकी विचारणा कर आए हैं- ऐसे एक मात्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय के कारण ऐसा होता है । अन्यथा जड मन की क्या हैसियत है कि... यह चंचल-चपल हो सके ? इतना ज्यादा दौड भाग सके? जी नहीं? इतना दुनिया भर का सोच सके, विचार कर सके । इस बात में कोई दम नहीं है । एक मात्र मोहनीय कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का उदय ही कारण रूप है । मोह कर्म आत्मा के ज्ञान को खा जाता है और अपने राग-द्वेष से रंग देता है । फिर राग-द्वेष से रंगीन बनाकर-रंगकर मन विचार रूप बनाकर-वचन योग से बाहर फेंकता है । इस तरह मोहनीय कर्मजन्य-मोह विषयक चंचलता-चपलता प्रकट होती है । निमित्तमात्र बिचारा मन दोषित होता है । आक्षेप-आरोप सब मन पर आता है । और सब ध्यान-योग की दुकानदारी चलानेवाले मन को मारने, मन को वश करने, स्थिर करने के लिए पीछे पडते हैं, सिखाते हैं । लेकिन उस अस्थिरता के कारणभूत मोहनीय कर्म के बारे में कोई विचार तक नहीं करता है । अतः परिणाम में सफलता प्राप्त नहीं होती है। आखिर कैसे सफलता मिलेगी? लगी आग से निकले हए धुएँ पर यदि कोई आकाश में पाइप लाइन से पानी के फव्वारा से मारा भी चलाता रहे तो क्या आग बुझेगी? जी नहीं, संभव ही नहीं है । धुंआ कारणरूप नहीं है वह तो कार्यरूप है । लेकिन उसका मूल कारण तो आग है । अतः आग बुझने पर ही धुआँ बंद होगा । ठीक उसी तरह यहाँ मन की अस्थिरता-चंचलता-चपलता कारणरूप नहीं है । ये तो कार्यरूप है । इसकी गहराई में मोहनीय कर्म की सत्ता तथा उदय कारणरूप है । अतः इस कारणरूप कर्म का उदय कम करने से, इसे टालने से, विषय-कषायों की प्रवृत्ति कम करने से ही मन की अस्थिरता-चंचलता-चपलता टलेगी। अतः सही दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिए । मात्र मन को पकड़ने की या फिर मन को वश करने आदि की प्रवृत्ति जितनी करनी चाहिए उससे पहले हजार गुनी मेहनत मोहनीय कर्म के उदय को कैसे टालना? इसका ध्यान रखना चाहिए। और उसके लिए सर्वप्रथम यम-नियमों का पालन करते हुए पापाश्रव, पाप की प्रवृत्ति का सर्वप्रथम निरोध करके संवर करना चाहिए। व्रत-विरति-पच्चक्खाण की उपासना सहायक बनती है। इसके बिना आगे प्रगति संभव नहीं है । निरर्थक व्यायाम मात्र सिद्ध होगा। टीकाकार का कथन- “एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्” इस सूत्र की टीका के टीकाकार पू. सिद्धसेन गणि लिखते हैं कि “अग्रम्-आलम्बनं एकं च तदग्रं चेत्येकाग्रं, ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९९९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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