SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर चढते हुए आत्मा का विकास साधते हुए सिद्ध बनना चाहिए। इस तरह इन १४ ही गुणस्थानों के लिए कहीं जैन धर्म के नामों की संयोजना भी नहीं की गई है। प्रत्येक गुणस्थान आत्मगुणों की अवस्था के सूचक हैं । अतः आत्मधर्म ही एक मात्र उपाय है । शुक्लध्यान के अवान्तर भेदों का ध्यान सब प्रकार के ध्यानों में सर्वोत्तम ध्यान साधना शुक्लध्यान की है । और देखा जाय तो सबसे कठिन ... अत्यन्त क्लिष्ट ध्यान साधना शुक्ल ध्यान की ही है । क्षपक श्रेणी का साधक योगी आठवें अपूर्व करण गुणस्थान से शुक्लध्यान की साधना करता हुआ युद्ध की सीमा पर के सैनिक की तरह आगे बढ़ रहा है। बस, अब ८ वे गुणस्थान से आगे के सभी गुणस्थान पर शुक्लध्यान का ही बोलबाला है । इसी की प्राधान्यता है । ८ वे से १२ वे तक के ४ गुणस्थान क्षपक श्रेणी के उनपर शुक्ल ध्यान के प्रथम दो प्रकार के ध्यानों की प्रधान रूप से साधना चलती है। बस, उसके पश्चात् योगी चारों घाती कर्मों का क्षय करके १३ वे गुणस्थान पर केवली-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है । अब १३ वे गुणस्थान पर... शुक्लध्यान के तीसरे चरण की ध्यान साधना करने का प्रधान रूप से रहता है। तपादि करें या न भी करें...लेकिन ध्यान अवश्य करेंगे ही। सयोगी केवली भी ध्यान करते हैं। अधिकांश रूप से ध्यान योग में ही काल निर्गमन करते हैं । बस, अब अन्तिम १४ वे गुणस्थान पर शुक्लध्यान का चौथा भेद ध्यान की धारा में रहता है । बस,...फिर तो अन्त ही है । इधर गुणस्थान का अन्त और इधर शुक्लध्यान का अन्त । बस, सब बात का अन्त आ जाता है । फिर तो संसार का भी अन्त, जीवन का भी अन्त और सदा के लिए मुक्ति... । बस, सबका अन्त । ध्यान का भी अन्त । अब सिद्ध बनने के बाद ध्यान करने की आवश्यकता ही नहीं है। और अध्यान-ध्यान बाहर रहने का भी कोई प्रश्न ही नहीं है। अब करने का प्रश्न ही नहीं है । अब सदा काल सहजभाव से स्वाभाविक रूप से ध्यान ही है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इस तरह ३ चरण में ४ भेदवाले शुक्लध्यान की साधना होती है । १) छद्मस्थावस्था में, २) सर्वज्ञावस्था में.. .और अन्त में, ३) अयोगी की अवस्था में । या इसे गुणस्थान पर विभाजन करें तो “शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः” “परे केवलिनः" विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १३३९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy