________________
१३ वे गुणस्थान पर सयोगी सर्वज्ञ का ध्यान
समुद्घातान्निवृत्तोऽसौ मनवाक्काययोगवान् । ध्यायेद्योगनिरोधार्थं, शुक्लध्यानं तृतीयकम् ।। ९५ । आत्मस्पन्दात्मिका सूक्ष्मा क्रिया यत्रानिवृत्तिका । तत्तृतीयं भवेच्छुक्लं सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिकम् ।। ९६ ।।
१३
वे सयोगी केवली गुणस्थान पर समुद्घात करने की क्रिया से निवृत्त मन, वचन और काय योग के योगवाले योगी अब योगों का निरोध करने के लिए अर्थात् रोकने के लिए तीसरे भेद का शुक्लध्यान करते हैं। ऐसा योग निरोध क्या है ? और कैसे होता है ? तथा इसमें शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद का ही अनिवार्य रूप से क्या काम है ? तीसरे शुक्लध्यान से ही योग निरोध कैसे होता है ? तथा तीसरे प्रकार के शुक्लध्यान का क्या स्वरूप है ? वह कहते हैं
सयोगी केवली १३ वे गुणस्थान पर जब योगों का निरोध करना हो तब विशिष्ट कक्षा के तीसरे शुक्लध्यान का आश्रय लेते हैं केवली भगवान । तीसरे प्रकार के शुक्ल ध्यान का नामकरण सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान ।
है
'जिस प्रकार के ध्यान में आत्मप्रदेशों का स्पंदन अर्थात् फरकना, चलायमान होना । इस प्रकार की स्पंदन रूप सूक्ष्म क्रिया जो निरंतर चलती रहती है । ऐसी आत्मस्पंदनात्मक सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्तिवाली रहती है । अनिवृत्ति का अर्थ है ... अब वह क्रिया सूक्ष्मत्व छोडकर पुनः कभी भी स्थूल रूप अर्थात् बादर रूप लेनेवाली नहीं है । बस, अब कभी भी सूक्ष्म क्रिया कभी भी स्थूल रूप होनेवाली ही नहीं है। इस सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति प्रकार का तीसरा शुक्लध्यान कहते हैं ।
तीसरे प्रकार के इस शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म क्रिया अर्थात् अत्यन्त अल्प क्रिया होती । और वह भी अप्रतिपाती अर्थात् पतन से सर्वथा रहित होती है। कभी भी कदापि जिसका पतन होना संभव ही नहीं है उसे अप्रतिपाती कहते हैं । अर्थात् पतन रहित । काययोग की क्रिया में अब मात्र श्वासोच्छ्वास लेने-छोडने रूप सूक्ष्म क्रिया ही रहती है । ध्यान करनेवाले ध्याता के परिणाम (अध्यवसाय) विशेष का पतन नहीं होता है उस ध्यान को सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती कहते हैं । प्रधान रूप से या तीसरे प्रकार का शुक्लध्यान सर्वज्ञ सयोगी केवली को आयुष्य समाप्ति के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के अवशिष्ट समय में जब योग निरोध करते हैं तब होता है। मनोयोग वचनयोगों का सर्वथा निरोध हो जाय, तब मात्र
१३४०
आध्यात्मिक विकास यात्रा