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________________ भी आत्मा के विकास की, तथा साधना की बाते करते हैं तब उनकी बातें कितनी हास्यास्पद लगती हैं ? कोई कहते हैं ध्यान करो, ध्यान के नाम पर अपनी मान्यता किसी भी तरह थोपने की कोशिश करते हैं। लेकिन आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानना, तथा कर्म विज्ञान के स्वरूप को भी नहीं मानना और फिर भी ध्यान सिखाकर कहना कि तुम्हारा विकास हो जाएगा। याद रखिए, यदि आत्म विकास होगा तो भी वह आत्मा के धरातल पर ही होगा। कर्मक्षयपूर्वक ही गुणों का प्रगटीकरण होगा। इसे ही आत्मिक विकास कहा जा सकेगा। गुणस्थानों की प्रक्रिया का मार्ग क्या जैनों का ही है?- शायद कोई यह भी सोचेगा कि गुणस्थानों के सोपानों पर आरोहण का यह मार्ग एक मात्र जैनों का ही मार्ग है। जैन धर्म का ही मार्ग है । अतः इसके उत्तर में यही कहना है कि...जी... नहीं। इसमें मात्र जैन धर्म की ही बात है ऐसा कुछ भी नहीं है। यह तो आत्मा का मार्ग है । आत्मा न तो जैन है और न ही हिन्दु-मुस्लिम है । या न ही बौद्ध-ख्रिस्ती है। .... आत्मा किसी भी धर्म संप्रदाय या धर्म की नहीं होती है। आत्मा संसारी अवस्था में कर्मग्रस्त है चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो? और सर्वथा कर्मरहित होने पर सिद्धावस्था में आत्मा निरंजन, निराकार, अकर्मी, अशरीरी होती है। अतः वहाँ किसी प्रकार के धर्म, पंथ या सम्प्रदाय की कोई बात ही खडी नहीं होती। ये सब सम्प्रदाय, पन्थ या गच्छ की बातें तथा व्यवस्था मानव सर्जित हैं और यहाँ संसारी अवस्था में हैं। याद रखिए, सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान तो आत्मधर्म बनाते हैं । कर्मक्षय के मार्ग रूप धर्म की स्थापना-व्यवस्था करते हैं । आत्मगुणों की प्राप्ति की प्रक्रिया रूप धर्म की स्थापना की है । उसके अनुरूप आचारधर्म का स्वरूप बैठाया है । लोगों ने अपनी तरफ से विकृति करते करते धर्म को इतना ज्यादा विकृत कर दिया है कि जिससे उसमें कई बातें विकृत हो चुकी हैं । याद रखिए,... तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवान कभी भी संप्रदाय-पन्थ या गच्छ की स्थापना करते ही नहीं हैं । यह तो बाद के काल के रागी-द्वेषियों का काम है, जिन्होंने बाद के काल में अपने-अपने अहंकार भाव के कारण कषायादि भावों की वृत्ति के कारण सम्प्रदाय, गच्छ या पन्थों की स्थापना की है। इनके भेद-प्रभेद निकाले हैं। इसी कारण उन-उन प्रकार के सम्प्रदायों में राग-द्वेष की मात्रा की, प्रवृत्ति की स्पष्ट गंध आती है। इसलिए सुज्ञ साधकों को चाहिए कि... यदि अपनी आत्मा का कल्याण करना हो तो कृपया साम्प्रदायिक-गच्छीय वमल के बंधन में से बाहर निकलकर शुद्धात्म धर्म में जुडना चाहिए.. । कर्मक्षय करते हुए राग-द्वेषादि कषायों से बचते हुए, आत्मगुणों के सोपानों १३३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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