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और जिनके आत्मगुण प्रगट हो चुके हो उनको अपनी साधना का केन्द्र बनाकर उन्हें अपने आराध्य देव बनाकर उनकी उपासना करें...उन्ही के बताए हुए मार्ग पर चलें, उनके बताए हए मार्ग को ही धर्म मानकर उसी पथ पर चलें, उनके उपदेश-आदेश को ही आज्ञा के रूप में शिरोधार्य करके... आज्ञा के आचरण को ही धर्म मानकर उस पथ पर उनके अनुगामी बनकर चलने से ... एक दिन उनके जैसे बना जा सकता है । इसलिए यह आत्मिक मार्ग है । गुणस्थानों के सोपानों के आरोहण के इस मार्ग को आध्यात्मिक मार्ग कहा है। आत्मा का विकास इस मार्ग में आत्मा के विकास की प्रक्रिया के दर्शन प्रत्येक सोपान पर क्रमशः किये जा सकते हैं।
याद रखिए, धर्म का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम स्वरूप ही आध्यात्मिक धर्म का स्वरूप है। होली आदि के अवसर पर रंग खेलना आदि धर्म की आड के नीचे पाप करना यह धर्म का निकृष्ट स्वरूप है। जन मानस में जो उत्सवप्रधान धर्म का स्वरूप स्थिर हो चुका है जिससे वे धर्म को उत्सव का पर्याय और उत्सव को धर्म का पर्याय मान बैठे हैं। यह उनकी अज्ञानता का परिचय है । बस, फिर उसमें नाच-गानादि धामधूम चलती ही रहती है । जब सामान्य जन इस विशुद्धात्म स्वरूप को समझकर इसकी श्रेष्ठता-सर्वोपरिता के आस्वाद को चखेंगे तब जाकर वे कहीं आत्म सन्मुख बनेंगे । अन्यथा कोई विकल्प ही नहीं है। जब तक जीव आत्म सन्मुख ही नहीं बनता है वहाँ तक उसके कल्याण के द्वार ही नहीं खुलते हैं । एक कदम भी वह कभी आगे बढ नहीं पाता है । अतः गुणों की उपासना को ही आचरणरूप धर्म बनाकर, तथा आत्मशत्रु रूप कर्मों को अच्छी तरह पहचानकर कर्मों का क्षय करना और आत्मगुणों को प्रगट करने का लक्ष्य लेकर साधना करना इसी को धर्म, तथा इसी में धर्म मानकर आत्मा आगे विकास करे तो ही मुक्ति की प्राप्ति कभी सुलभ बनेगी । अन्यथा अनन्त काल में भी नहीं। . ___ अतः जगत् के कितने ही हो, चाहे कोई भी धर्म क्यों न हो लेकिन उस धर्म में आध्यात्मिकता का धर्म तो होना ही चाहिए। आत्मस्वरूप, आत्ममार्ग कर्म को पहचानने तथा क्षय करने की प्रक्रिया, तथा आत्मगुणों के प्रगटीकरण की प्रक्रिया का धर्म तो सभी धर्मों में स्पष्ट होना ही चाहिए। तो ही वह श्रेष्ठ धर्म की गणना में गिना जा सकेगा। गिनने के योग्य बनेगा। अन्यथा जो धर्म आत्मा की, कर्म की, गुणों की आत्मकल्याण या विकास साधने की प्रक्रिया बताते ही नहीं है, या उनके धर्मशास्त्रों में निर्देश मात्र भी नहीं हैं, वे धर्म ही कहनाने के लायक नहीं है । ऐसे धर्म को धर्म कैसे करें ? अरे ! आश्चर्य तो इस बात का है कि... आत्मा के अस्तित्व को ही सर्वथा न माननेवाले भी धर्म कहलाते हैं, और वे
विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति"
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