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में केवली भगवान अपने आत्मप्रदेशों से सिर्फ ४ समय मात्र काल में संपूर्ण लोकाकाश व्यापी बन जाते हैं । समस्त १४ राजलोक में व्याप्त बन जाते हैं। जिसमें १४ राजलोक का एक अंश भाग भी अवशिष्ट नहीं बच पाता, अर्थात् समस्त लोकाकाशों का स्पर्श कर लेते हैं । इस तरह संपूर्ण लोक व्याप्त बन जाते हैं ।
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इस चित्र को देखिए... . एक बार आँख खोलकर बंध करते हैं इतनी एक पलक मात्र क्रिया में असंख्य समय बीत जाते हैं । इसमें सिर्फ ४ समय का ही काल लगता है आत्मा को समुद्घात की क्रिया में समस्त लोक व्यापी बनने में । बस, अब इन ४ समयों की इस प्रक्रिया के बाद पुनः पूर्ववत् स्थिति में आने के लिए केवली उल्टे क्रम सीधे की तरफ आते हैं ।
शायद आपके मन में ऐसी शंका जगेगी कि ... क्या यह कोई चमत्कार दिखाया ? या अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया ? या यह क्या किया ? क्यों किया ? क्या इससे कर्मनिर्जरा होती है ?. . इसके उत्तर में स्पष्ट है कि मात्र ४ समय लोकसंस्थान पूरण की इस प्रक्रिया का हमारे जैसे सभी सामान्य जीवों को क्या ख्याल आएगा ? समुद्घात करने की केवली की इस क्रिया का जगत् में किसी भी जीव को ख्याल आ ही नहीं सकता है । एक मात्र अन्य केवली ही जान सकते हैं । अतः यह कोई चमत्कार की क्रिया ही नहीं है । जहाँ हमें एक पलक में होनेवाले असंख्य समयों का ख्याल ही नहीं आता है वहाँ सिर्फ ४ समय का क्या ख्याल आएगा ? सवाल ही नहीं है । गुणस्थान क्रमारोहकार लिखते हैं कि ... “एवमात्मप्रदेशानां प्रसारणविधानतः कर्मलेशान् समीकृत्य” इस तरह केवली भगवान अपने आत्मप्रदेशों को विस्तार, प्रसारण करने के इस प्रयोग से कर्मलेशों को समान करते हैं । अर्थात् जिन नाम, गोत्र, वेदनीय अघाती कर्मों की स्थिति आयुष्य कर्म से काफी ज्यादा थी उनकी अतिरिक्तता को कम करके आयुष्य के समकक्ष करते हैं । बस, अपना निर्धारित कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् जिस क्रम से किया था उसी क्रम से अर्थात् वापिस उल्टे-विपरीत क्रम से पुनः आत्मप्रदेशों को देहस्थित करने की दिशा में लौटते
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हैं ।
पाँचवे समय में अंतर्पूर्ति की क्रिया करके निवर्तते हैं । अर्थात् मंथान के आंतर में प्रसारित आत्मप्रदेशों का संकोचन करके पुनः मन्थानरूप बनाते हैं । मन्थानाकार बनते हैं ।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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