SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शेष ३ अघाती कर्मों की स्थिति आयुष्य कर्म के समकक्ष करने के लिए...केवली भगवान अपने आत्मप्रदेशों को ऊर्ध्वलोकान्त से अधोलोकान्त तक प्रसारित करते हैं । फैलाते हैं। देहस्थित आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकालकर समस्त लोकाकाश परिमित स्थिति को बनाते हैं । अर्थात् समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में आत्मप्रदेशों को व्यवस्थित रूप से फैला देते हैं । अलोक में गति सहायक धर्मास्तिकाय का अस्तित्व ही नहीं होने से अलोक में आत्मप्रदेशों का गमन हो ही नहीं सकता है । अतः अलोक का सवाल ही खडा नहीं होता है । इसलिए समस्त लोक क्षेत्र में केवली अपनी आत्मा के असंख्य प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकालकर फैलाते हैं। इस प्रसारण की क्रिया में १ समय मात्र काल लगता है । इस प्रसारण की क्रिया में आत्मप्रदेशों को दीर्घ श्रेणीवाला-दंडाकार रूप में स्थित करते हैं। फिर दूसरे समय में . पूर्व-पश्चिम की दिशा में आत्मप्रदेशों को प्रसारित करते हुए कपाट (किवाड) समान आकार की रचना करते हैं। अब तीसरे समय में उस कपाट (किवाड) आकार रूप में विस्तारे = फैलाए हुए उन आत्म प्रदेशों को फिर दक्षिण से उत्तर दिशा तक प्रसारण करके मन्थानाकार के रूप में रचना करते है । और आगे चौथे समय में...उस बनाए हुए मन्थान के अन्तरों को भरने की क्रिया करते हैं । इस प्रक्रिया में समस्त १४ राजलोक प्रमाण लोक क्षेत्र को संपूर्ण रूप से भर देते हैं अर्थात् संपूर्ण १४ राजलोक में सर्वत्र केवली के आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाते हैं । अब कोई कोना भी खाली नहीं बच पाता । इस तरह समुद्घात करने की इस प्रक्रिया १३३० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy