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________________ कर्म की भी अपनी बंधस्थिति तो निश्चित ही माननी पडेगी । फिर उस कर्मावरण के क्षय हो जाने के पश्चात् पुनः आहार- पानी ग्रहण करने की प्रक्रिया उन्हें स्वीकार करनी ही पडेगी । और यदि नहीं तो उस कर्म को अत्यन्त सुदीर्घ स्थितिवाला मानना पडेगा जिसकी आयुष्य की समाप्ति तक समाप्ति ही न हो । ते फिर आयुष्य के समाप्त हो जाने के पश्चात् भी उस कर्म की स्थिति और सत्ता माननी पडेगी । फिर उसको भुगतने के लिए क्या पुनः जन्म लेना ? क्योंकि कर्म शेष रहेगा तो दुबारा जन्म लेना ही पडेगा । और ऐसा मानेंगे केवली को तद्भव मोक्षगामी मानने के बजाय पुनर्जन्मी मानना पडेगा । यह तो और बडे सिद्धान्त का घात मानना पडेगा । इस तरह दिगंबर दोनों तरफ से फस जाते हैं । दूसरी तरफ यदि ऐसे अन्तराय कर्म को मानकर दिगंबर केवली को आहार नहीं मानते हैं तो क्या ऐसे अन्तराय कर्म के उदय में, और सत्ता में रहने पर केवलज्ञान का होना मानने के लिए तैयार हैं? क्या अन्तराय कर्म को घाती कर्मों की गणना में नहीं मानते हैं? यदि नहीं तो फिर क्या अघाती में गिनेंगे ? यह तो शास्त्रों में स्पष्ट ही है कि ... आत्मा गुण का घातक होने के कारण घाती कर्म ही है। और चारों घाती कर्मों का संपूर्ण क्षय होने से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। न कि एक मात्र ज्ञानावरणीय कर्म के ही क्षय से । मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थ) में भी १० वे अध्याय में " मोहक्षयाद्..." सूत्र से चारों घाती कर्मों के सर्वथा संपूर्ण क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। ऐसा स्पष्ट कहा है । फिर कहाँ इस बात का सवाल ही खड़ा होता है ? दिगंबर भी यही सिद्धान्त मानते हैं । फिर क्यों निरर्थक विवाद खडा करते हैं ? " इतो व्याघ्रस्ततो तटी” इधर बाघ और उधर नदी जैसी स्थिति में फसनेवाले दिगंबर मतवादी दोनों तरफ से फसते हैं । अतः मेरा कहना है कि क्या दिगंबर बंधु केवली आहार करे इस कारण नहीं मानते हैं कि ... यदि केवली आहार करेंगे तो क्या केवलज्ञान चला जाएगा ? अरे ! क्या केवलज्ञान को वापिस चला जानेवाला–प्रतिपाती मानते हैं ? अरे ? यह तो सबडे बडी सिद्धान्त को कुचलने की भूल होगी । अरे ... रे !.. केवलज्ञान जैसे महान गुण को आहार से चले जानेवाला मानना .. कितनी बडी भारी भूल होगी ? दूसरे मति आदि ज्ञान की तरह केवलज्ञान को भी प्रतिपाती - पुनः चला जानेवाला शास्त्रों ने बताया ही नहीं है। यह तो शाश्वत सिद्धान्त है कि ... केवलज्ञान एक बार होने के बाद अनन्तकाल तक आत्मा के साथ रहता ही है । कभी भी वापिस चला नहीं जाता। सिद्ध बन जाती है आत्मा, तब सिद्धावस्था में भी सदाकाल सर्वज्ञ ही रहती है। कभी भी पुनः असर्वज्ञ बन ही नहीं सकती है । अतः यह बुद्धि का निरर्थक व्यायाम सिद्धान्त घातक सिद्ध होगा इसलिए दिगंबर बंधुओं को इस आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३२७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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