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________________ नामकर्म की प्रकृष्ट पुण्यप्रकृति का उदय तो उपयोगी होने से चाहिए । गोत्रकर्म तो केवली को ऊँचे गोत्र(उच्च कुल) में रखकर बैठा है । वेदनीय कर्म शाता का सुख सहयोगी बनकर दे रहा है । अतः इनकी किसी की बड़ी समस्या ही नहीं है । अतः इन अघाती कर्मों का क्षय करने के लिए आज इतनी बडी तपश्चर्या करनी पडे ऐसा आवश्यक नहीं लगता है । शायद केवली भगवान् के आयुष्य कर्म के दलिकों से यदि अन्य ३ अघाती कर्मों के दलिकों की मात्रा यदि प्रमाण में काफी ज्यादा हो तो अन्त में समानता लाने के लिए वे महापुरुष समुद्घात कर लेगें। लेकिन ऐसी समुद्घात की क्रिया निर्वाण के समय अन्त में होगी। और इस क्रियाविशेष में समय भी कितना लगता है ? एक आँख की पलक खोलकर बन्द करने में जो असंख्य समय बीत जाते हैं उसमें से मात्र ८ समयों के न्यूनतम काल में यह समुद्घात हो जाता है । परन्तु यहाँ तो बात है... हजारों-लाखों दिनों की । केवली पर्याय के इतने लंबे वर्षों की बात है । भ० आदिनाथ को १००० वर्ष कम ऐसे १ लाख पूर्व का लम्बा आयुष्य केवली के रूप में बिताना है । देशना भी देनी है, विहारादि सब करना है। अतः इस औदारिक शरीर के लिए आहार की अनिवार्यता रहेगी ही। और जो केवली पूर्व क्रोड वर्ष के आयुष्यवाले हो और उसमें भी सिर्फ ८ वर्ष की बाल्यावस्था में जिन्होंने दीक्षा लेकर नौं वर्ष की उम्र में केवलज्ञान पा लिया हो ऐसे केवली क्या पूर्वक्रोड वर्ष का पूरा आयुष्य बिना आहार लिये ही बिताएंगे? जबकी औदारिक ही देह है। .. औदारिक देहधारी को ही नियम से केवलज्ञान होता है अन्यथा किसी भी अन्य प्रकार के देहधारी को तो केवल हो ही नहीं सकता है । और एक मात्र औदारिक देहधारी ही आहार ग्रहण करते हैं और उसमें भी दिगंबर मतवादी आहार का केवली के लिए निषेध कर देते हैं तो यह मनघडंत बात कैसे युक्तियुक्त लगेगी? आखिर किस कारण से वे निषेध करते हैं? क्या किसी ऐसे भारी कर्म का नया उदय ही केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद हो जाता है कि जिसके उदय के कारण केवली आहार ग्रहण ही न करें। ऐसा तो एक मात्र अन्तराय कर्म है जो विघ्न-अंतराय डाले बीच में और आहार उपलब्ध ही न होने दे। जैसा कि प्रथम तीर्थपति आदिनाथ भगवान के जीवन में हुआ था। उन्होंने दीक्षा ली और ऐसा अन्तराय कर्म उदय में आया कि बरोबर ४०० दिन (१३ महीने + ३५ दिन) तक आहार-पानी गोचरी (भिक्षा) में उपलब्ध ही नहीं हुआ। मिला ही नहीं। लेकिन एक दिन उस कर्म का आवरण हटा और श्रेयांस कुमार के करकमल से प्रभु ने इक्षुरस ग्रहण करके पारणा किया-आहार ग्रहण करके उदरपूर्ती की। क्या दिगंबर बंधु किसी ऐसे नए कर्म का उदय मानेंगे? क्या वे मानने के लिए तैयार हैं ? और यदि ऐसा कर्म मानेंगे तो उस १३२६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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