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________________ स्वामी छ? तप = २ उपवास करके निर्वाण पाए । मोक्ष में गए । इसी तरह भ० पार्श्वनाथ प्रभु १ मासक्षमण का तप = ३० उपवास करके निर्वाण पद पाए । मोक्ष में गए । इस तरह सभी तीर्थंकर भगवंतों के निर्वाण तप का वर्णन मिलता है । अधिकांश तीर्थंकरों ने निर्वाण तप अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के समय १ महीने के उपवास-मासक्षमण का तप करके निर्वाण पद पाया है। सबसे कम तप अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी भगवान ने निर्वाण के समय किया है- वह है सिर्फ २ उपवास । लेकिन केवलज्ञान की प्राप्ति के काल से लेकर इतने दीर्घ काल में कहाँ किसने कितना तप किया? उसकी कोई विशेष बात नहीं मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने तप नहीं किया। आहार ग्रहण करते रहे। और यदि मान भी लो कि तप किया हो तो उस तप का प्रमाण कितना था? शायद १००, २००, ५०० उपवास एक साथ किये होंगे? लेकिन बाद में पारणा भी किया तो होगा? या मासक्षमण किये हो तो एक के बाद दूसरे मासक्षमण के अन्तराल में कितना अन्तराल काल था? कितने दिनों बाद पुनः दूसरा-तीसरा मासक्षमण किया? यदि इतने दिनों के बाद दूसरा-तीसरा मासक्षमण किया तो बीच के दिनों में आहार-पानी-भिक्षा अवश्य ग्रहण की होगी। केवली पर्याय में तप करने की आवश्यकता क्यों नहीं रहती? इसके उत्तर में स्पष्ट कहते हैं कि राग-द्वेषौ च न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम्। राग-द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम्? यदि राग-द्वेष सत्ता में है ही नहीं तो फिर तप करने का प्रयोजन क्या? और राग-द्वेष की तीव्रता प्रगट हो, प्रत्यक्ष में वर्तमान काल में तीव्र रूप से किये जाते हो, तो ऐसे समय में भी तप क्या काम आएगा? निरर्थक जाएगा। ऊपर से कर्म बंध होगा, और हो सकता है कोई नियाणा करके निकाचित कर्म उपार्जन करें। केवली ने तो चारों घाती कर्मों का क्षय कर दिया है । अतः मोहनीयादि के सर्वथा क्षय हो जाने के कारण राग-द्वेष-कषायादि जब अंश मात्र ही नहीं है तो फिर निरर्थक तप करने से क्या फायदा? किस प्रयोजन से करना है? शायद आप कहेंगे। अघाती कर्मों का क्षय करने के लिए। तो वह भी बात नहीं रहती। क्योंकि चारों अघाती कर्म अभी इतने लम्बे वर्षों तक जीवन जीने में सहयोगी-उपयोगी हैं। आयुष्य कर्म तो अभी जीने के लिए चाहिए ही। नाम कर्म की शुभ पुण्य प्रकृतियाँ अच्छी सहयोगी हैं। तीर्थंकर आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३२५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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