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________________ शरीर में लौट आते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त का खेल है । यह कार्य भी वैक्रिय देहधारी कदापि कर ही नहीं सकते हैं । अतः देव नारकी के लिए आहारक शरीर बनाने का कोई सवाल ही खडा नहीं होता है। अब रही बात औदारिक शरीर की। विशिष्ट प्रकार की औदारिक वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके जिस शरीर की रचना की जाती है उसे औदारिक शरीर कहते हैं । मनुष्य और तिर्यंच पशु पक्षी की गति–जाती के समस्त जीव सभी मनुष्य तथा सभी पशु-पक्षी इस प्रकार के औदारिक शरीर की रचना करते हैं । ऐसा शरीर अन्न-पानी के आधार पर टिकता है । हमारे माता-पिता वे स्वयं जो औदारिक देहधारी हैं, उन्होंने जिस प्रकार का आहार किया... अन्न-पानी का भक्षण किया, और उसके आधार पर... जैसा रज-वीर्य बना...उसरज-वीर्य के संयोग की स्थिति में हमारी आत्मा ने कर्मसंयोगवशात् उस माता के गर्भ में आकर जन्म ग्रहण किया। अतः हमारा यह शरीर भी उदार पगलों से बना हुआ औदारिक शरीर ही है । अतः इस शरीर का आधार अन्न-पानी के आहार ग्रहण पर रहता है । अतः आहार के बल पर ही टिकता है । आखिर केवली हो या तीर्थंकर हो उनका सबका शरीर भी औदारिक ही होता है। और याद रखिए, औदारिक देहधारी ही केवलज्ञान पाते हैं, और वे ही मोक्ष में जाते हैं । अन्य वैक्रिय देहधारी कोई न तो केवलज्ञान पा सका है और न ही मोक्ष में जा सकता हैं। केवली या तीर्थंकर ने भी इस मनुष्य गति में आकर अपने माता-पिता से गर्भज जन्म ही लिया है। अतः उनका शरीर भी औदारिक ही है। उन्होंने अपने गृहस्थाश्रम में रोटी, चावल, दाल, शाक, सब्जी, फल, मिष्टान्नादि आहार का ही भोजन किया है । अरे ! उन दिनों गृहस्थाश्रम में भी तीर्थंकर मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानों से परिपूर्ण थे। ज्ञान पूरा था। जो भी तीर्थंकर जितने काल तक अपने गृहस्थाश्रम में उतने वर्षों तक वे ज्ञानी होने के बावजूद भी आहार तो किया ही है । ८३ लाख पूर्व तक भगवान ऋषभदेव अपने घर में रहे, शादी हुई, १०० संतान भी हुए । पौत्र-प्रपौत्रादि अनेक हुए। ८३ लाख पूर्व के इतने लम्बे काल तक ज्ञानी होने के कारण क्या उन्होंने आहार नहीं किया? अरे ! अवश्य ही किया। नहीं तो इतने लाखों करोडों-अरबों वर्ष तक कैसे जीवित रहे? यदि आहार न स्वीकारें तो क्या वे अनाहारी थे? या अनशन था? या क्या वे वैक्रिय देहधारी थे कि जिसके कारण आहार की उनको आवश्यकता ही नहीं थी? अरे ! इससे भी आगे सोचिए,... शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि.. गर्भ के ९ ।। महीने में ही भगवान ३ ज्ञान के मालिक थे, और जन्म के बाद भगवान ने अपनी माता का १३२२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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