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________________ आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं मानते हैं ? या क्या वे गुणस्थानों की प्रक्रिया नहीं मानते हैं? या क्या वे कर्मक्षय की निर्जरा की प्रक्रिया क्षपक श्रेणी आदि नहीं मानते हैं ? आखिर क्या बात है? यह समझ में नहीं आता है । दार्शनिक ग्रन्थों में जहाँ इन चर्चाओं को उठाई है, इनमें भी कोई दम तर्क-युक्तियों में नहीं दिखाई देता। फिर भी निरर्थक रूप से इस प्रश्न को बड़ा रूप देकर एक धर्म के बीच दिवाल खडी करके निरर्थक अलग होकर सम्प्रदाय खडा करना कहाँ तक उचित है ? आप बुद्धिमान हैं । अतः बुद्धिजीवी वर्ग को विचार करने के लिए आह्वान देता हूँ कि वे जरूर इस पर अपनी बुद्धि चला कर इस निरर्थक विवाद को मिटाकर सही सत्य को अपनाए । और धर्म को सम्प्रदायवाद के बंधन से मुक्त करें । सोचिए... कर्मशास्त्रकार एवं श्री सर्वज्ञ भगवंत ने ५ प्रकार के शरीर बताए हैं। १) औदारिक २) आहारक, ३) वैक्रिय, ४) तैजस और ५) कार्मण । इन ५ प्रकार के शरीरों में देव नारकी जीवों की शरीर रचना वैक्रिय वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं की बनी हुई होती है । अतः उन्हें हमारी तरह आहार करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है । तो क्या देव-नारक जीवों को आहार न करने के कारण केवली तुल्य माना जाय? या केवली को देव नारक तुल्य देहवाला माना जाय? केवलज्ञान किस प्रकार के शरीरधारी को होता है? क्या वैक्रिय शरीरधारी को कभी केवलज्ञान हुआ भी है ? अनन्तकाल में भी ऐसी कोई घटना नहीं हुई। एक भी दृष्टान्त नहीं है। वैक्रिय देहधारी देव-नारक जीवों में से किसी एक को भी कभी भी केवलज्ञान हुआ ही नहीं है । यदि केवलज्ञान का आहार के होने न होने के साथ ही कुछ संबंध होता हो... आजीवन पर्यन्त सर्वथा रोटी-चावल का आहार न करनेवाले देव नारकी को पहले केवलज्ञान होता, या वे केवली बनकर आजीवन पर्यन्त अनाहारी रह जाते । लेकिन वैसा तो है ही नहीं, “न भूतो न भविष्यति" जैसी बात है । इसी तरह नग्नता को ही केवलज्ञान की प्राप्ति में अनिवार्य प्रधान हेतु माननेवालों को यह भी सोचना चाहिए कि पशु-पक्षी आजीवन पर्यन्त नग्न-दिगंबर ही रहते हैं। क्या कभी किसी पशु-पक्षी को केवलज्ञान हुआ है ? या क्या कभी किसी देव-नारकी को केवलज्ञान हुआ है? अनन्तकाल में भी नहीं। इसी तरह आहारक लब्धिधारी साधु महात्मा यदि आहारक वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके आहार क शरीर बनाते हैं । बनाकर महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर भगवान के पास जाकर पुनः लौटते हैं । और पुनःउस आहारक शरीर को छोडकर औदारिक आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३२१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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