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केवलज्ञान पाया । इस तरह इस अवसर्पिर्णी काल की वर्तमान चौबीशी के प्रथम तीर्थंकर को छद्मस्थावस्था में सबसे ज्यादा समय लगा । केवलज्ञान पाने में सबसे ज्यादा विलम्ब (अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा) हुआ ।
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यह तो होता है । सबका समान काल होना तो कभी भी संभव ही नहीं है । क्योंकि सबके अपने-अपने कर्मों का प्रमाण भी कम - ज्यादा रहता है । तथा क्षय करने की तीव्रतादि के आधार पर भी समय का आधार रहता है । भले ही समय कम-ज्यादा लगे, इसमें बड़ी बात नहीं है । लेकिन केवलज्ञान अनिवार्य रूप से होने ही वाला है । तीर्थंकर अनिवार्य रूप से केवली बनकर मोक्ष में जाएंगे ही। उन्हें भवान्तर-जन्मान्तर तो करना ही नहीं है। तीर्थंकर अनिवार्य रूप से तद्भव मोक्षगामी जीव है। अतः उसी भव में मोक्ष में जाएंगे ही।
केवली भुक्ति सिद्धि
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केवलज्ञान हो जाने के पश्चात् केवली भगवान आहार- पानी ग्रहण करते ही हैं क्योंकि तीनों योगो में काय योग भी साथ ही है । काया की जो स्वाभाविक - प्राकृतिक आहार - निहारादि की प्रवृत्तियाँ है वे तो हैं वे हैं ही। रहेगी ही । और रहे इससे केवलज्ञान को कोई नुकसान भी नहीं । क्योंकि केवलज्ञान आत्मगुण है, आत्मा में रहनेवाला है । जबकि आहार यह शरीर की आवश्यकता है । अतः आहार करने से या निहार - शरीर से मल- - मूत्रादि का विसर्जन करने से केवलज्ञान चला नहीं जाता है । या कम ज्यादा नहीं हो जाता है । अतः आहार-निहार की साहजिक स्वाभाविक जो प्रवृत्तियाँ हैं, अनिवार्य रूप
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होती रहती हैं। इसमें कुछ भी अयुक्त नहीं है । फिर भी समझ में नहीं आता है कि क्यों दिगंबर सम्प्रदाय ने निरर्थक विरोध खडा करके सम्प्रदाय भेद का विष घोला है, एक निरर्थक विवाद फैलाया है । कभी सोचा भी सही कि क्या यह शास्त्रीय या सैद्धान्तिक विधान है ? तर्क, युक्ति और बुद्धि की तुला पर तोलने पर भी क्या इसमें यथार्थता - वास्तविकता का अंश मात्र भी तथ्य - सत्य कुछ निकलेगा ? कदापि नहीं जब संभव ही नहीं है, तो फिर निरर्थक विवाद फैलाकर असत्य की प्ररूपणा करके सत्य का अपलाप करके केवली का स्वरूप विकृत करने से कितना भारी पापकर्म उपार्जन करते हैं दिगंबर बंधु ?
१) स्त्री मुक्ति, २) केवली भुक्ति । बस इन दो सिद्धान्तों के विषयों में मतभेद का विवाद खड़ा करके निरर्थक असत्य फैलाने का पाप सिर पर क्यों लेना चाहिए ? क्या वे
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आध्यात्मिक विकास यात्रा