SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रदेश बंध में आत्मा जिन कार्मणवर्गणाओं के परमाणुओं को ग्रहण करती है उनका प्रमाण मुख्यरूप से है । वे परमाणु कितनी संख्या में, कितनी मात्रा में हैं ? जैसे रोटी बनाने के लिए आटा कितना लेना? या फिर इस खम्भे के लिए सिमेन्ट कितनी मात्रा में लेनी? यह निर्णय प्रदेश बंध में होता है । इसलिए आत्म प्रदेशों पर कार्मण वर्गणा के परमाणुओं की संख्या और मात्रा (प्रमाण) का आधार भी रस बंध पर आधारित रहता है । “पएसो" का अर्थ “दलसंचओ" किया है। कार्मण वर्गणा के दलिकों का संचय अर्थात् इकट्ठा करना । जैसे बूंदी के लड्डु में बूंदी के दाने कितने हैं ? संख्या की गिनती का प्रमाण है। इसी तरह आत्मा के साथ कर्मबंध होता है । उसमें कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं की गिनती-संख्या का प्रमाण रहता है। .. इन ४ प्रकार के कर्मबंधों में... मिथ्यात्व-अविरति-कषाय आदि बंधहेतुओं से होनेवाले बंध में रस, प्रकृति और स्थितिबंध का आधार प्रमुख रूप से रहता है । जी हाँ, . .. तदनुरूप उस मात्रा में प्रदेशों का संचय तो होगा ही। अतः चारों प्रकार के बंध होंगे। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये ५ कर्म बंध के हेतु हैं । कारणभूत हैं । और प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश ये ४ कर्म बंध के प्रकार हैं । कषायादि बंधहेतु की तीव्रता मन्दता के आधार पर...रस बंध होगा और रस के आधार पर स्थिति बंध होगा। परन्तु यदि इन बंध हेतुओं में से एक एक की संख्या कम होती जाय तो उसके आधार पर.. रस बंध और स्थिति बंध भी घट कर कम होते हैं । बंध हेतुओं में सबसे बड़ा राजा कषाय है। और बंध के चारों प्रकारों में सबसे बड़ा राजा रस बंध है । इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि रस बंध का आधार कषाय पर है और स्थिति बंध का आधार रस बंध पर है । यदि रस का प्रमाण ज्यादा रहा तो स्थिति का बंध भी ज्यादा-दीर्घ रहेगा। और यदि रस का प्रमाण कम होगा तो स्थिति बंध में भी काल का प्रमाण कम रहेगा। जिससे ज्यादा दीर्घ-लम्बी स्थिति नहीं बंधेगी। केवली का प्रदेशबंध और स्थिति १३ वे गुणस्थान पर जीव केवलज्ञानी सर्वज्ञ वीतरागी बन चुका है । वीतरागता ही मोहनीय कर्म की सर्वथा सत्ता का अभाव सूचित करती है। यह प्रतीक-प्रमाण है । इसी तरह शेष ज्ञानादि गुण भी उन उन कर्मों के सर्वथा अभाव के सूचक हैं। ऐसे वीतरागी-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान १३ वे गुणस्थान पर कर्म बांधेगे या नहीं? इस का उत्तर स्पष्ट ही है कि.. जहाँ तक बंध हेतुओं का अस्तित्व रहेगा-वहाँ तक तो कर्मों का आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३१३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy