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बंध निश्चित ही होगा और उसमें भी बंध तो चारों प्रकार का होगा। लेकिन जिन बंध हेतुओं की संख्या मात्रा कम हो जाएगी उस हिसाब से बंध का प्रमाण जरूर कम हो जाएगा। इसलिए साधक को साधना की दृष्टि से समझना चाहिए कि..बंध के प्रकारों पर लक्ष्य रखने की अपेक्षा बंध के हेतुओं पर ही ज्यादा चिन्ता करें । कर्म बंध के हेतु जो मिथ्यात्वादि हैं उनसे बचने के लिए ही प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। इस कार्य को करने की प्रवृत्ति-पुरुषार्थ को ही धर्म कहा है । मिथ्यात्व से बचने के लिए या उसे दूर हटाने के लिए जो उपाय है वह एकमात्र सम्यक्त्व का है। इसी तरह आगे के कर्म बंध हेतुओं से बचने के लिए जो उपाय-विकल्परूप हैं वे ही धर्म हैं । व्रत या विरति धर्म अव्रत के पाप बंधहेतु से बचाएगा। प्रमाद का बंध हेतु टलने से अप्रमत्त धर्म बढेगा। चौथा बंध हेतु कषाय संपूर्ण रूप से सर्वांशिक जडमूल से हटाकर १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर आत्मगुण वीतरागतादि जो प्रगट कर लेता है वह साधक...पुनः...कभी राग-द्वेषादि कषाय नहीं करता है । पुनः कषायों का आलंबन लेना उसके लिए संभव ही नहीं है । कषाय जो बंधहेतुओं का मुख्य राजा है उसके टल जाने से अब १३ वे गुणस्थान पर जो भी जितना भी कर्म का बंध होगा वह अब शेष ५वे बंध हेतु के द्वारा ही होगा। उत्तर-उत्तर (अर्थात् ऊपर ऊपर) के बंध हेतु जैसे टलते जाएंगे वैसे-वैसे पूर्व-पूर्व के बंध हेतु की संभावना ही नहीं रहेगी । उनका सर्वथा लोप हो जाएगा। वे रहेंगे नहीं और जो पूर्व के बंधहेतु रहेंगे तो उत्तर बंध हेतु अवश्य ही रहेंगे।
१२ वे, १३ वे गुणस्थान पर एक मात्र अंतिम बंध हेतु “योग" ही बचा है । कषाय मुख्य राजा के न रहने के कारण अकेला मन-वचन-काया का बंध हेतु होने के कारण थोडा सा अल्पप्राय भी कर्म बंध होगा जरूर, लेकिन वह नाम मात्र ही रहेगा। यद्यपि इस प्रकार के योगज बंध में भी प्रकृति और रस बंध ये दोनों नहीं होंगे क्यों कि रस बंध का मुख्य कारण कषाय थे। वे कषाय ही नहीं बचे हैं। अतः रस बंध नहीं होगा। और रस बंध नहीं होगा तो स्थिति बंध भी नहीं पड़ेगा। तथा प्रकृति बंध क्या होगा? चारों घाती कर्मों का तो सर्वथा क्षय हो चुका है अतः उनका तो सवाल ही खडा नहीं होता है । अब रही अघाती ४ कर्मों की बात इनमें भी आयुष्य, नाम, और गोत्र इन ३ कर्मों का नया बंध तो होता ही नहीं है। आयुष्य तो वैसे भी नहीं बांधना है क्योंकि आगामी जन्म ही नहीं लेना है उसी भव में मोक्ष में जाना है। इसलिए सवाल ही नहीं उठता कि नया आयुष्य बांधे । तथा नाम कर्म भी अगले जन्म में जो देहादि धारण करना हो तो उसके पीछे काम करता है। इसी तरह गोत्र की व्यवस्था की बात कब आती है? जब जन्म ले तब । यदि
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आध्यात्मिक विकास यात्रा