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________________ १३ गुणस्थान पर पहुँचता ही तब है जब वह मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर लेता है । तभी वीतरागी बनता है । और फिर १२ वे गुणस्थान पर पहुँचकर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म इन ३ घाती कर्मों का सर्वथा जडमूल से क्षय कर लेता है । तब वह वे गुणस्थान पर पहुँच कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनन्त शक्तिशाली बन जाता है । यही सिद्ध करता है कि ... यह साधक सच्चा सही योगी था । अतः १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर सर्वज्ञ- वीतरागी बनने के बावजूद भी उनके तीनों योग हैं अतः वे योगी हैं। योग सहित केवली होने के कारण उन्हें सयोगी केवली कहते हैं। बस, इसके पश्चात् वे १४ वे गुणस्थान पर पहुँचकर अयोगी बनकर योगों का सर्वथा त्याग कर देंगे । सदा के लिए तीनों योगों को छोडकर अयोगी बन जाएंगे। उसके पश्चात् ही सिद्ध बनेंगे ।. १३ वे गुणस्थान पर भी कर्म बंध १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर वीतरागता सर्वज्ञादि - अनन्त चतुष्टयी प्राप्त करके इतनी महान उपलब्धि प्राप्त कर ली है फिर भी क्या वे कर्म बांधेंगे ? क्या नए कर्मों का उपार्जन करेंगे ? यदि हाँ कहें तो कैसे मानने में आएगी यह बात ? और यदि सर्वथा ना कह देते हैं तो तीनों योग हैं। तीनों योगों की प्रवृत्तियाँ भी हैं । अतः मन-वचन-कायादि बरोबर प्रवृत्तिशील है । और तीनों की प्रवृत्तियाँ चल रही हैं। तो मनादि की तीनों योगों की जो प्रवृत्तियाँ चल रही हैं उनसे क्या कर्मों का बंध होगा कि नहीं ? होता है या नहीं ? और यदि होता भी हो तो किन कर्मों का बंध ही सकता है ? क्योंकि घाती कर्मों के विभाग I I सभी कर्मों का क्षय मूल से संपूर्ण हो हो चुका है । तथा उनका क्षय सर्वथा क्षायिक भाव सेहो चुका है । अतः उन कर्मों का बंध तो सर्वथा क्षय हो जाने के कारण पुनः होगा ही नहीं । वीतरागतादि सर्वज्ञतादि सभी अनन्त चतुष्टयी के गुण क्षायिक भाव से प्रगट हुए हैं । अतः इन पर तो पुनः कर्म के आवरण कदापि नहीं लगेंगे। लेकिन ८ कर्मों में दूसरा विभाग जो अघाती कर्म का है। इसमें ४ अघाती कर्म हैं । १३ वे गुणस्थान की आत्मा को पुनः संसार चक्र में जन्म लेना ही नहीं है । अतः आगामी आयुष्य तो सर्वथा बांधना ही नहीं है । इसलिए आयुष्य कर्म का बंध तो वे करेंगे ही नहीं । अब रही बात शेष ३ अघाती की । गोत्र कर्म भी आगामी जन्म में उच्च या नीच गोत्र में ले जानेवाला है । अतः जब अगला जन्म ही नहीं लेना है तो फिर गोत्र कर्म भी नया बांधने का रहता ही नहीं है । इसी तरह नाम कर्म जो शरीर रचना, इन्द्रिय, गति, जाति, वर्णादि की रचना - व्यवस्था करता है । 1 आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३०७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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