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________________ शुभ–अशुभ दोनों प्रकार के नाम कर्म जो मृत्यु के बाद होनेवाले आगले जन्म की व्यवस्था करने रूप तैयारी करनेवाला कर्म है । अतः इसको भी बांधने की कोई अवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि १३ वे गुणस्थानवाले को अगला नया जन्म ही लेना नहीं है । नियम ही है कि जो भी साधक एक बार १३ वे गुणस्थान पर आरूढ हो गया उसे दुबारा जन्म लेने का रहता ही नहीं है। एक बार केवलज्ञान हो जाने के पश्चात् दूसरा जन्म पुनः धारण करने का शेष रहता ही नहीं है । अतः १३ वे गुणस्थानवाले केवली का मोक्ष अवश्य ही है । अतः नाम, गोत्र और वेदनीय इन ३ अघाती कर्मों का भी नया बंध होने वाला ही नहीं है। अब रही एक मात्र वेदनीय कर्म की बात । वेदनीय कर्म के २ विभाग हैं । १) शाता वेदनीय और २) अशाता वेदनीय । ये दोनों बांधे जाय तब इनकी उत्कृष्ट बंधस्थिति... इतनी होती है । तथा जघन्यतम (न्यूनतम) स्थिति बंध १ अंतर्मुहूर्त होता है। फिर तुरंत उदय में आता है और सुख-दुःख देकर चला जाता है । १३ वे गुणस्थान के स्वामी केवली भगवान को १३ वे गुणस्थान पर आठों कों में से एकमात्र शाता वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । उसे भी प्रथम समय में बांधते हैं और दूसरे समय में भोगते हैं और तीसरे समय में तो क्षय भी कर देते हैं। यहाँ कषायादि भाव तो सर्वथा होते ही नहीं है। अतः बंध की स्थिति लम्बी दीर्घ तो पडनेवाली ही नहीं है। १४ गुणस्थानों के सोपानों पर आप देख रहे हैं कि कषायों का बंध, कषायों का उदय और सत्ता कहाँ तक रही है? १० वे गुणस्थान तक कषाय का उदयं था। लेकिन १२ वे गुणस्थान से तो सत्ता से क्षीण हो गया। अब कषाय न तो बंध में है, न ही उदय में है, और न ही सत्ता में है। इसलिए अंश मात्र भी कषाय का अस्तित्व किसी भी रूप में नहीं बचा है । इसलिए अब कषाय की नाम मात्र भी प्रवृत्ति नहीं है। ___ कर्म बंध के हेतुओं में अन्य हेतु मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद भी नहीं है । ये ३ और कषाय इन ४ का तो नाम मात्र भी अस्तित्व १३ वे गुणस्थान पर बचा ही नहीं है। इसलिए किसी की भी प्रवृत्ति नहीं है । अतः किसी के कारण कर्मों का बंध हो यह संभव ही नहीं है । अब मात्र एक ही बंध हेतु बचा है वह है योग । १३ वे गुणस्थान पर केवली भगवान को भी योगबंध होता है । क्योंकि मन-वचन-काया के योग यहाँ भी मौजूद हैं । इनकी प्रवृत्ति यहाँ भी होती ही है । अतः १३ वे गुणस्थान पर जो कर्म का बंध होगा वह भी योगज बंध होता है। १३०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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