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दूसरी तरह छट्ठे गुणस्थान पर साधु बना हुआ साधक सर्वविरतिरूप दीक्षा - चारित्र अंगीकार कर लेता है। अतः 'करेमि भंते' के पाठ से 'जावज्जीवाए' शब्दों से आजीवनभर की सामायिक उच्चर लेता है । तथा यावज्जीवनपर्यन्त किसी भी प्रकार की मन-वचन-काया के योगों की प्रवृत्तियों में प्रतिबन्ध लगाता है । “तिविहं - तिविहेणं - मणेणं-वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न मज्जाणामि" के पाठ पूर्वक आजीवन पर्यन्त की भीष्म प्रतिज्ञा कर लेता है ३ x ३ = ९ । मनादि ३ योग - पूर्वक न करना-न कराना - करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करना पूर्वक नौं कोटिपूर्वक की प्रतिज्ञा कर लेता है । अतः अब छट्ठे गुणस्थान से आगे के सभी गुणस्थान पर नौं कोटि शुद्ध विरति पालनेवाला साधक रहता है । इससे आश्रव का निरोध हो गया । अतः आश्रवप्रधान प्रवृत्ति बन्द होकर अब संवरात्मक प्रवृत्ति रहती है । ये तीनों योगमनादि के जिस प्रकार के कर्मों का बंधादि कराते थे उसके बजाय ये योग अब उनसे ही बचाते हैं । अतः संवरात्मक धर्म ज्यादा होता है । संवर आश्रव निरोधात्मक धर्म है । अब तीनों योग संवर में लग गए। समिति - गुप्ति पूर्वक की और अष्ट प्रवचनमाता की जयणापूर्वक की ही प्रवृत्ति रहती है । अतः सातवें गुणस्थान से अप्रमत्त बन जाने के बाद
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और उपयोग जागृत हो जाता है। इससे इतनी ज्यादा सावधानी आ जाती है. कि ... अब तीनों योगों के होते हुए भी कर्म बंध की प्रवृत्ति अब नहीं है। अब संपूर्ण निर्जरा ही निर्जरा चलती है । अनन्त काल तक जो तीनों योग कर्म बंधाने की प्रवृत्ति कराते थे वे अब सर्वथा - संपूर्ण रूप से उल्टे पलट गए हैं अंतः अब बंध के बदले निर्जरा कराते हैं ।
इस तरह योगी ने तीनों योगों को अपने वश में कर लिया है। अतः सही अर्थ में महान योगी बन गया है । जो भी योगी अपने मनादि तीनों योगों के द्वारा सर्वथा पापकर्म की प्रवृत्ति बन्द कर दे और इन तीनों योगों से आत्मा पर लगे हुए सभी कर्मों का क्षय करने में सहयोगी बनाए उसे ही सही योगी कहते हैं । तथा श्रेष्ठतम योगी कहते हैं । और जो योगी बनने के बावजूद भी अपने मनादि तीनों योगों पर नियंत्रण न कर सके या इन तीनों योगों से कर्मक्षय निर्जरा न कर सके और उल्टा कर्मबंध ही करता रहे, उसे योगी नहीं कहा जाता । वर्तमानकाल में ऐसे सेंकडों योगी दुनिया की बाजारों में देखने मिलेंगे जो योगी होने का दावा करते हैं, दिखावा करते हैं । परन्तु सही अर्थ में योगी कहलाने के योग्य नहीं
है
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क्षपक श्रेणी पर आरूढ हुआ योगी जितने प्रमाण में कर्मों की ढेर सारी निर्जरा करता जाता है उतनी निर्जरा तो शायद ही कोई योगी करता होगा। ऐसा क्षपक योगी १२ वे
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आध्यात्मिक विकास यात्रा