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प्रत्ययिक अवधिज्ञान होता है। यहाँ तक कि तिर्यंच गति के पशु-पक्षी जीवों को भी मति-श्रुत ज्ञान तो होता ही है, लेकिन अवधिज्ञान भी पशु-पक्षियों को भी हो सकता है।
मनुष्य १ ले गणस्थान पर ही ३ ज्ञान-मति-श्रत और अवधिज्ञान पाता है। २ रे. ३रे, तथा ४ थे और ५ वे पर भी ३ ज्ञानधारी होता है । और ६ टे गुणस्थान पर साधु ४ था मनःपर्यवज्ञान पा सकता है । मनःपर्यवज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है कि... एक मात्र साधु महाराज को ही हो सकता है। जबकि शेष चारों ज्ञान साधु व्यतिरिक्त श्रावकों को भी हो सकते हैं । केवलज्ञान गृहस्थ वेश में भी हो सकता है । ५ वाँ केवलज्ञान यह सीधे १३ वे गुणस्थान पर ही प्राप्त होता है । १४ वे गुणस्थान पर भी केवली ही रहते हैं। और यहाँ संसार में से केवलज्ञान-केवलदर्शनादि पूर्ण कक्षा के प्राप्त करके यहाँ से लेकर ही मोक्ष में जाते हैं । कोई मोक्ष में जाकर केवलज्ञान नहीं पाते हैं । यहाँ पाकर साथ लेकर जाते हैं। यह ऐसा अप्रतिपाती ज्ञान है कि एक बार प्राप्त हो जाने के पश्चात् पुनः गिरता नहीं है, नष्ट भी नहीं होता है । आकर वापिस चला भी नहीं जाता है । अनन्तकाल तक मोक्ष में सदा रहता है । अतः सिद्ध भगवान सदा केवली सर्वज्ञ-सर्वदशी रहते हैं। स्त्री को केवलज्ञान____ स्त्री शरीर धारण करनेवाली आत्मा भी इसी तरह, इसी प्रक्रिया से आगे बढकर ८ वे गुणस्थान पर आकर शुक्लध्यान की धारा में क्षपकश्रेणी पर आरूढ हो सकती है और ८ वे गुणस्थान पर अवेदी, वेद रहित बनकर १० वे गुणस्थान पर कषायरहित बन सकती है। तथा सीधे १२ वे गुणस्थान पर...आकर वीतराग बनकर १२ वे के अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय की सर्व प्रकृतियाँ क्षय करके १३ वे गणस्थान पर आकर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनती है । इसमें स्त्री शरीर कहीं बीच में बाधक नहीं बनता है । मल्लीनाथ इस चौबीशी के १९ वे तीर्थंकर स्त्रीदेहधारी ही थे। सभी तीर्थंकर भगवन्तों की साध्वियाँ हजारों-लाखों की संख्या में केवलज्ञान केवलदर्शन पाकर मोक्ष में गई हैं । वे सभी देहधारी ही थी। ध्यान की धारा में आगे बढना है, धर्मध्यान से शुक्लध्यान में ऊपर चढना है और क्षपक श्रेणी प्रारम्भ करके आगे के गुणस्थान पर आरूढ होकर अन्त में १२ वे गुणस्थान पर वीतरागी बनकर १३ वे गुणस्थान पर केवलज्ञानादि प्राप्त करके केवली-सर्वज्ञ बनना है । इस प्रक्रिया में स्त्रीदेह कहाँ बीच में बाधक बनता है ? यह संपूर्ण रूप से आत्मिक प्रक्रिया है । आत्मा के अन्दर ही होनेवाली यह प्रक्रिया है । इसमें देह कहीं भी बाधक नहीं बनता है। परन्तु यह समझ में नहीं आता
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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