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________________ है कि... दिगंबर सम्प्रदाय जैन सिद्धान्तों को मानते हुए सम्प्रदायवाद के मोह के चक्र में फसकर इस सिद्धान्त को भी उल्टा देते हैं और स्त्री को केवलज्ञान नहीं होता और वह मोक्ष 1 ही नहीं सकती है ऐसा मानते हैं। क्या वे आत्मा को नहीं मानते हैं ? जी हाँ,.. मानते ही हैं । क्या गुणस्थानों की प्राप्ति के स्वरूप को नहीं मानते हैं? ऐसा भी नहीं है, अच्छी तरह मानते हैं। क्या दिगंबर केवलज्ञान को नहीं मानते हैं ? मानते हैं। क्या दिगंबर मतावलम्बी केवलज्ञान प्राप्त होने की इस प्रक्रिया को नहीं मानते हैं ? मानते ही हैं । तो क्या दिगंबर केवलज्ञान को ध्यानजन्य प्रक्रिया से होना नहीं मानते हैं ? नहीं वैसा भी नहीं है । दिगंबर भी केवलज्ञान की उपलब्धि ध्यानजन्य ही मानते हैं। तो क्या वे क्षपक श्रेणी नहीं मानते हैं ? अच्छी तरह मानते हैं । तो फिर स्त्री को केवलज्ञान का निषेध क्यों किया ? इसके पीछे कोई शास्त्रीय सैद्धान्तिक कारण नहीं दे पाते हैं दिगंबर । एक मात्र संप्रदाय का राग-‍ - मोह ही प्रबल कारण है । बस, इस पक्षरांग की तीव्रता में फसकर शास्त्रीय सिद्धान्त के खून करने का पाप निरर्थक ही सिर पर उठाते हैं ? केवलज्ञान की प्राप्ति की समूची प्रक्रिया आन्तरिक — आत्मिक होने के बावजूद स्त्रीदेह को बीच में लाकर उसे कारण बनाकर स्त्री के लिए केवलज्ञान सिद्धान्त तोड देनेवाले दिगंबर यह क्यों नहीं समझते है कि इससे आत्मस्वरूप... आदि अनेक सिद्धान्तों के स्वरूप को भी वे तोड-मरोडकर विकृत कर रहे हैं । एक मात्र पक्ष राग के मोह के कारण वे स्वयं फसते जा रहे हैं। एक मात्र वस्त्र (अम्बर) का राग - म - मोह छोडकर निर्वस्त्र नग्न हुए.. लेकिन सम्प्रदायवाद के मोह-राग की तीव्रतर रागावस्था ने फिर उन्हें लपेट लिया, फसा दिया। इस तरह सम्प्रदायवाद का भूत धर्म के शुद्ध स्वरूप को भी कितना बिगाड देता है यह इसका ज्वलंत दृष्टान्त इससे बडा और कहीं दूसरा ढूँढना ? १३ वे गुणस्थान पर "सयोगी” मन-वचन-काया के ये ३ योग आत्मा को मिलते हैं । १) मनोयोग में मन साधन है, जो विचार करने में सहायक है । मन के जरिए विचार किये जाते हैं । वचन योग के द्वारा भाषा का प्रयोग किया जाता है । १३ वे गुणस्थान पर केवली भगवान को भी देशना देनी पडती है | अतः वचन प्रयोग करने के लिए वचनयोग रखना पडता है। तीसरा काययोग है । जब तक शरीर रहता है । तब तक काय योग अनिवार्य रूप से रहेगा ही । १३ वे गुणस्थान के स्वामी केवली भगवान को भी देहयोग है ही, क्योंकि काया की प्रवृत्ति चल ही रही है। आहार - निहार-विहारादि सभी काया की प्रवृत्ति अनिवार्य है | अतः १३०४ - आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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