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१) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष यह ऐन्द्रिय तथा मानस प्रत्यक्ष है। अतः लोक व्यवहार में जिसे सांव्यवहारिक कहते हैं उसे ही शास्त्रीय भाषा में परोक्ष नाम दिया है। यह मति - श्रुत दो प्रकार के भेदवाला है, अतः मति और श्रुत ज्ञान का आधार मन और इन्द्रियों पर रहता है। अतः मन इन्द्रियों के माध्यम से ही मति - त-श्रुतज्ञान होता है ।
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२) पारमार्थिक प्रत्यक्ष - दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है । प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है— अक्षं नाम आत्मा । आत्मानं प्रति इति प्रत्यक्षम् ॥ अक्ष शब्द आत्मावाचक भी है। अतः अक्ष से आत्मा ग्राह्य है । आत्मा के प्रति सीधे ही पदार्थों का किसी की भी मदद के बिना ग्रहण होने को सीधा प्रत्यक्ष कहते हैं । इसमें मन और इन्द्रियों की मदद की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं रहती । आत्मा सीधे ही लोक को जान सकें । सीधे ही किसी के मन के विचारों को जान सके । तथा सीधे ही लोक एवं अलोक के पदार्थों को अच्छी तरह जान सके ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। ऐसे ३ ज्ञान हैं १) अवधिज्ञान, २) मनःपर्यवज्ञान और ३) केवलज्ञान । ये ३ ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । अतः इन तीनों ज्ञानों के लिए मन या किसी भी इन्द्रिय की आवश्यकता ही नहीं रहती है । आखिर चक्षु आदि इन्द्रियों की शक्ति सीमित - मर्यादित है । यहाँ से स्वर्ग या नरक में इतनी लम्बी सुदूर तक आँखे कैसे देख पाएँगी ? संभव ही नहीं है । अतः आँख बंद हो या खुल्ली हो कुछ भी फरक नहीं पडता । आँखों की नेत्रज्योती स्वर्ग-नरक तक पहुँच ही नहीं सकती है । अतः उसकी कल्पना करना ही व्यर्थ है । अतः अवधि आदि तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । इसे लोकव्यवहार के इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्तर्गत भ्रमणावश कोई मान न ले इसके लिए उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ।
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१) अवधिज्ञान से बिना मन और इन्द्रियों की मदद के आत्मा प्रत्यक्ष रूप से स्वर्ग-नरकादि क्षेत्रों को जान सकती है ।
२) मनः पर्यवज्ञान- मन- इन्द्रियों के बिना लोक के संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत
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भावों के विचारों को जाना जाता है, उसे मनः पर्यवज्ञान कहते हैं।
३) केवलज्ञान - मन और इन्द्रियों की रत्तीभर भी आवश्यकता ही नहीं रहती और आत्मा सीधे लोक और अलोक की अनन्तक्षेत्रीय, अनन्तकालीन, भूत - वर्तमान - भावि
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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