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________________ क्या देर लगती है ? वैसे ही... ज्ञान परिपूर्ण हो, उसको ध्यान करने में क्या देर लगती है? और ध्यान की शुद्धतम धारा अखंडरूप से चलती हो उसको कर्मों का क्षय करने में क्या देर लगती है ? बटन दबाते ही लाइट होने में शायद देर लग सकती है परन्तु शुभ एवं शुद्ध तथा शुक्ल ध्यान होते ही कर्मों की निर्जरा (करने) क्षय होने में शायद उससे भी न्यूनतम समय लगता है । उसमें भी यदि क्षपक श्रेणी शुरु हो गई हो तो... तो फिर पूछना ही क्या? और समय देखना ही क्या? गौतम ८० वर्ष की वृद्धावस्था में थे। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रभात काल में ही वीतराग बने, केवलज्ञानी-केवली बन गए। केवलदर्शनी बने, अनन्त शक्ति के स्वामी बने । इस तरह अनन्त चतुष्टयी गुणसम्पन्न बन गए । महावीर के जैसे ही बन गए । बस, अन्तर सिर्फ... तीर्थंकरपने का था। वे तीर्थंकर स्कर्म की पुण्य प्रकृति के आधार पर तीर्थंकर बन सके थे । इनका यह पुण्यकर्म उपार्जित या हुआ नहीं था । अतः गौतम तीर्थंकर नहीं बन सके । बस, शेष सभी बातों में समानता पूरी थी। १२ वर्षों तक गौतमस्वामी केवली के रूप में स्वर्णकमल पर धर्मदेशना फरमाते रहे । अन्त में निर्वाण पाकर सदा के लिए मुक्त बन गए। कैवल्यप्राप्ति का राजमार्ग १३ वे गुणस्थान पर पहुँचना और केवलज्ञान की प्राप्ति के कुछ दृष्टान्त जो इतिहास प्रसिद्ध थे उनका उल्लेख यहाँ किया है । यद्यपि ग्रन्थ विस्तार जरूर होता है फिर भी... उपयोगिता उतनी ही ज्यादा है । इन दृष्टान्तों में बाह्य आभ्यन्तर की प्रक्रिया को यदि अच्छी तरह समझी जाय... तो अच्छी तरह ख्याल आ सकता है कि बाह्य निमित्त सर्वथा गौण है । आभ्यन्तर प्रक्रिया ही महत्व की है । वे महापुरुष कोई इन और ऐसे निमित्तों को ढूँढने नहीं गए। और वे निमित्त कैवल्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक भी नहीं होते हैं, उपयोगी भी नहीं होते हैं. लेकिन उनके कैवल्य की प्राप्ति के लिए बाह्य निमित्त या प्रसंगवश घटना उस समय वैसी थी । इसलिए घटना इतिहास बन गई । वे इतिहास के प्रसंग हमारे सामने आज इस तरह आ गए अतः यह एक दृष्टान्त बन गए हैं। बाकी केवलज्ञान की प्राप्ति से उस घटनाओं का कोई संबंध नहीं है। लेकिन इतना जरूर है कि... वे प्रसंग उनको कैवल्य की प्राप्ति में सहायक निमित्त जरूर बने हैं। कैसे कैसे विचित्र निमित्त? शायद विचित्र शब्द का प्रयोग करने के बजाय तो विपरीत शब्द का प्रयोग करना ही ज्यादा उपयोगी होगा। सच देखा जाय तो बनी हई घटना के ये सभी निमित्त केवलज्ञान पाने में सर्वथा विरुद्ध विपरीत लगते हैं एक भी १२९२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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