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________________ क्या क्या दृष्टान्त बने हैं ? कैसे कैसे प्रसंग भूतकाल में बने हैं और कैये केवलज्ञान प्राप्त हो गया? यह आश्यर्यकारी घटनाएँ हैं । यद्यपि हमारे जैसे अल्पज्ञ के लिए ये बुद्धि के बाहर की बातें लगती हैं । शायद हम सोच भी न पाएँ । बात भी सही है । सर्वज्ञ की बात अल्पज्ञ क्या सोचे? ऐसे सेंकडों दृष्टान्त जैन चरित्रवाङ्मयों में भरे पडे हैं । हमें रोज उनका विस्तार से पठन करना चाहिए, ताकि भविष्य में कभी सर्वज्ञ बनने के स्वप तो आए। खाते-खाते भी केवलज्ञान . पूर्व में सांप के जन्म में सुंदर समता की साधना करके जीव कुंभराजा की महारानी की कुक्षी में आया । पुत्ररूप में जन्मे उनका नाम नागदत्त पडा । यौवन की देहली पर पैर रखते ही युवक ने जैन मुनि के दर्शन करते ही वैराग्य वासित होकर चारित्र अंगीकार करके मनि महात्मा बने । तिर्यंच की गति से आने पर आहार की संज्ञा ने जोर पकडा और दूसरी तरफ क्षुधा वेदनीय ने भारी भूख जगाई । परिणाम स्वरूप महात्मा भूखे रह ही नहीं सकते थे। इसके कारण तप तपश्चर्या करनी संभव ही नहीं थी । होती ही नहीं थी। चाहे कितना भी बडा पर्व का दिन भी आ जाय । ऐसी स्थिति में गुरु ने आज्ञा दी कि- हे मुनि । तुम भाव तप में आगे बढो और पूरी समता को आत्मसात कर लो। चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थिति आ जाए बस, समता मत तोडना । भले ही करना पडे उतना थोडा आहार ले लो। . मुनि एक गड्आ(एक छोटाबर्तन जैसा पात्र) भर कर कर(अनविशेष भात-चावल) भिक्षा में लाकर खाते थे। किसी भी कदर अपने उदर की पूर्ति करते थे। एक भी उपवास-आयंबिल कर ही नहीं सकते थे। लेकिन साथ के अन्य४ साधु महातपस्वी थे। वे ३०-३० उपवास से मासक्षमण की तपश्चर्या कर सकते थे। एक गडु पात्र (भात) कूर खाने के कारण मुनि का नाम कुरगडु के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। मुनि रोज गोचरी लेने जाते और नियम से आचार के अनुरूप अपनी भिक्षा तपस्वी मुनिओं को दिखाकर फिर ही खाते थे। जिनके ३० उपवास के मासक्षमण की तपश्चर्या चल रही थी ऐसे तपस्वी तथा दूसरों की ६० उपवास की, तीसरे महात्मा । ८० उपवास की तथा चौथे मुनि की १२० उपवास की दीर्घ तपश्चर्या चल रही थी । कुरगडु मुनि ने बड़े पर्व के दिन भी गोचरी लाकर तपस्वियों को दिखाई । उन महात्माओं ने कहा अरे ! यह क्या? आज बडा पर्व है । आज भी आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२८७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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