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________________ तो वह तो ज्ञान मात्र से ही सम्भव हो सकता है। तो क्या तुझे ज्ञान हुआ है ? शिष्य ने कहा- गुरुजी ! आपकी कृपा की ही सब प्रसादी है । ये शब्द सुनकर शिष्य की विनम्रता का ख्याल आया। दूसरी तरफ... सिर के खून की धारा जब गुरु के पैर पर आई तो गुरु भी दंग रह गए । शिष्य को कहा- रुक ! मुझे नीचे उतरने दे।... गुरु नीचे उतरे...और अपने ज्ञान से अनुमान लगाया कि कौन सा ज्ञान हुआ होगा? केवलज्ञान हुआ होगा? अब गुरु शिष्य को खमाने लगे। अपने अपराध की क्षमापना करने लगे। और अफसोस भाव में सोचने लगे। अरे ! कहां एक रात का शादी करने निकला यह मेरा शिष्य और कहाँ वर्षों का दीक्षित मैं आचार्य । बस, अनुप्रेक्षा की धारा में आगे बढ़ते-बढ़ते ... महात्मा ने ध्यान की धारा शुरु की । शुक्लध्यान की धारा के विशुद्ध अध्यवसाय में क्षपक श्रेणी प्रारम्भ हो गई और आचार्यश्री सीधे १३ वे गणस्थान पर जाकर रुके । वहाँ सीधा केवलज्ञान पाकर सर्वज्ञ बन गए । क्षपक श्रेणी तो सीधे केवलज्ञान तक लाकर ही रोकती है । वाह ! क्या गुरु-शिष्य की जोडी थी? कैसे थे और कैसे बन गए ? क्या थे और क्या बन गए? धन्य है ऐसे सर्वज्ञ महापुरुषों को । अनन्तानंत वंदन है। लग्न मण्डप की चोरी में केवलज्ञान जैन शासन के इतिहास में एक ही ऐसा दृष्टान्त जिनका है वह है- पृथ्वीचन्द्र गुणसागर जैसे महात्माओं का शंख और कलावती के भाव से चल रही संसार की भव परंपरा में अन्तिम जन्म में आकर पृथ्वीचन्द्र गुणसागर बने हैं। संसार के महान त्यागी मनोभाव से भी विरक्त ऐसे महात्मा शादी करने के लिए लग्नमण्डप में बैठे। शादी करानेवाले बाह्मण पंडित ने हस्तमिलाप कराया। बीच में अग्नि के चारों तरफ प्रदक्षिणा दे रहे थे नए वर-वधू । इतने में चिंतन की धारा ने जोर पकड़ा। अरे यह क्या? क्या अग्नि? क्या पत्नी? क्या ये बंधन? हे चेतन ! तूं बंधन में रहनेवाला है या मुक्ति में? और यह क्या हो रहा है? बस, जहाँ देह राग का भाव छूटा कि चेतन-आत्मा का चिन्तन शुरु हुआ। आत्मचिन्तन आत्मा की उन्नति की दिशा में आगे बढा। धर्मध्यान से शुक्लध्यान में शुद्धतम कक्षा के शुभ भाव ने क्षपकश्रेणी पर पहुँचा दिया, और देखते ही देखते लग्न मण्डप में ही लघुकर्मी आत्मा के घाती कर्मों का बंधन तूट गया और महात्मा केवलज्ञान पाकर सर्वज्ञ बन गए। फिर इस प्रसंग की घटना का अद्भुत वर्णन अन्य राजा के सामने करते हुए दूत ने मानों दूसरा दीप जलाया हो वैसे ही सुषुप्त चेतना को जगाई । और उनको भी इसी प्रक्रिया से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। १२८६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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