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________________ खाएगा? जा... थू.. थू.. करके गले का कफ उस अन पर थूक दिया। फिर उसकी निंदा भी करने लगे। भली बूरी सुनाने लगे। फिर भी कुरगडु मुनि समता में रहकर सहन करते और आत्मग्लानिपूर्वक अपनी कर्म स्थिति पर अफसोस व्यक्त करते थे। आज तो मुनि बहुत ही प्रसन्न हो गए कि तपस्वी की लब्धि मुझे मिल गई । इससे भी मेरे कर्मों का क्षय हो सकेगा। मुनि पूर्वसमता में रहकर... अन पात्र ले गए एक तरफ, और बैठ गए खाने । सबसे पहले कफ-धुंकवाला कवल पहले खाया, और समता की साधना में ध्यान लीन बन गए । आखिर ध्यान ही आत्मा की आगे प्रगति कराता है । मुनि चढ गए क्षपक श्रेणी में और एक एक करके सीधे १३ वे गुणस्थानक पर जा रुके । सयोगी केवली बने । अब वीतरागी और केवलज्ञानी-केवलदर्शनी बने हुए महात्मा को वंदनार्थ देवी देवता आए । स्वर्णकमल की रचना करके उन्हें उस पर बिराजमान किया । सर्वज्ञ महात्मा ने धर्म देशना दी। यह दृश्य देखकर १, २, ३ और ४ मासक्षमण के उग्र–घोर तपस्वी आश्चर्य में गरकाव हो गए । ओहो।..अरे... ! यह तो रोज खानेवाला था। यह कहाँ तपस्वी था? उग्र... घोर तप तो हम कर रहे हैं। और इस खानेवाले को कैसे केवलज्ञान हो गया? देवी ने उत्तर देते हुए कहा- तपस्वीजी ! आप बाह्य तपस्वी रहे और साथ में कषाय-ईर्ष्या द्वेष की मात्रा घटा नहीं पाए । जबकि ये आभ्यन्तर तपस्वी बने । समता के साधक बने। राग-द्वेष को सर्वथा छोड कर आपके कफ थूक को लब्धि मानकर खाया और ध्यान की धारा में चढ गए... देखिए !... आपका उपकार मानते हैं कि ... आपकी कृपा से-केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। - यह रहस्य जान कर १, २, ३ और ४ मासक्षमणवाले तपस्वियों ने अपने अन्तर में पश्चाताप की आग जलाई । बात बिल्कुल सही थी कि... हम बाह्य रूप से तो उग्र तप कर रहे हैं लेकिन राग-द्वेष-कषायों को संपूर्ण तिलांजली नहीं दे पाए। ओहो... ऐसे शुभ अध्यवसायों से उन्होंने केवली कुरगडु महात्मा को सच्चे भाव से खमाया .... क्षमायाचना की...और पश्चाताप की तीव्र अग्नि में भावना के सहारे ध्यान में चढ गए। बस, कमी किस बात की थी? सहयोगी तैयारी तो थी ही तपादि की। शुक्लध्यान ने क्षपक श्रेणी को और तीव्र बना दिया। वाह !... चारों तपस्वी कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी सर्वज्ञ बन गए। धन्य.... धन्य थे वे तपस्वी रत्न.... बस, खमाते.... खमाते केवलज्ञान पा लिया। अरे वाह ! खाते-खाते भी केवलज्ञान? कितना आसान लगता है केवलज्ञान पाना? क्यों? १२८८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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