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चिट्ठी के चाकर नोकरों ने निकाली तलवार और उठाई। इतने में महात्मा सारी परिस्थिति समझ गए और आत्मध्यान करके आत्मा का अधःपतन रोकने के लिए सुवर्ण अवसर को साधने के लिए जल्दी ही ध्यान की धारा प्रारम्भ कर दी । अल्पसमय में ध्यान साधना ही तीव्रता के साथ जल्दी ही ऊपर उठाती है-आगे बढाती है । गाढ समता में महात्मा ने घातक मारकों को भी उपकारी मान लिया। धर्मध्यान से शुक्लध्यान में तीव्रता लाकर क्षपक श्रेणी पर आरूढ होकर ... तलवार गिरने के पहले तो अध्यवसायों की तीव्रता के साथ चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान पा लिया... बस, सर्वज्ञ वीतरागी बन गए । अब तो पुनः आत्मा के पतन का सवाल ही खडा नहीं होता है । इतने में तो तलवार गिरी और एक झटके के साथ... शिरच्छेद हो गया और निर्वाण पाकर महात्मा मोक्ष में पधारे । वाह ! क्या साधना थी? कितने अल्प काल में महात्मा साध गए।
इधर शिरच्छेद के बाद उडी हुई खून की पिचकारियों के कारण खून से लथपथ ओघा मुहपत्ती को मांस पिण्ड समझकर एक चील अपनी चांच में ले उडी और योगानुयोग विशाल राजमहल की गछी पर उसकी चोंच से गिर पडा। रानी जो मुनि की सगी बहन थी उसने ओघा मुंहपत्ती से भाई को पहचान लिया। रोने लगी। पति राजा भी आए और वास्तविकता समझकर पश्चाताप के भाव में राजा ने अपनी भूल स्वीकार की और दोनों ने अनशन स्वीकार कर पाप धोने का संकल्प करके पश्चाताप की धारा में अनित्यादि भावनाओं के सहारे धर्मध्यान से शुक्लध्यान के सोपान चढते हैं । परिणाम स्वरूप क्षपक श्रेणी प्रारम्भ करके शुभाध्यवसायों की तीव्रता से कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए।
वाह ! क्या आश्चर्य है। शिरच्छेद होते हुए भी केवलज्ञान और मरनेवाले को पश्चाताप में भी केवलज्ञान प्राप्त होता है । धन्य है ... धन्य है । पश्चाताप में केवलज्ञान
शास्त्र प्रसिद्ध बात अषाढाचार्य की है । जिन्होंने दिवंगत होते अपने ४-४ शिष्यों को मृत्यु के समय अंतिम साधना कराई और शरत रखी कि यदि आप देवलोक-स्वर्ग में जाओ तो वापिस मुझे मिलने जरूर आना, मुझे कहना, बात करना, मैं पूछं वह सब कहना .. । लेकिन अफसोस चारों में से कोई नहीं आया। गुरु अषाढाचार्य विचारों से नास्तिकता का निर्णय करके साधुधर्म छोडकर पुनः संसार में जाकर संसार के मौज सुख भोगना चाहते थे। इतने में १ देवआया और उसने दैवी माया बताई । ६ महीने का लम्बा नाटक बताया।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा