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________________ कराया। सभी जीवों पर मैत्री भाव जागृत कराया । शत्रू पर भी समभाव जगाया । उसे भी उपकारी मानने के लिए कहा । सोचिए ! मरने के लिए हँसते मुँह उत्सुक सभी ४९९ साधु या होम करके झुकाने के लिए एक साथ गिरने के लिए झपके कि.. दुष्ट पालक ने कहा एक-एक गिरिए ! सभी साधु पंक्तिबद्ध कतार में खडे रह गए । एक-एक करके सांचे में गिरने लगे। पापी कसाई जैसा राक्षस पालक अपने यन्त्र चलाता गया और तिल में से तेल की तरह साधुओं के शरीर से खून की नदियाँ बहने लगी। एक के पीछे एक करके ५०, फिर १००, फिर २००, फिर ३०० साधु पूरे हो गए । एक भयानक कत्लखाने जैसा डरावना दृश्य खडा हो गया। निर्दय क्रूर एवं निष्ठुर पालक का मनरूपी कूप अभी तक भरा नहीं। वह तो खुश होता हुआ मुनियों को पीलता ही गया । आचार्य श्री कतार में खडे हुए एक-एक करके सभी साधुओं के अध्यबसायों को चढाते गए, बढाते गए। देखते-देखते ३५०, और ४०० साधु पीले गए,४५० हो गए,४७५ पूरे हो गए, ४९९ पूरे हो गए। __ आचार्यश्री का इतना महान उपकार-प्रबल प्रेरक प्रेरणा थी कि अपनी आँखों के सामने खून की बहती हुई नदियाँ देखने के बावजूद भी .. कोई मुनि विचलित नहीं होते थे। और उत्कृष्ट ध्यान की धारा में गुणस्थानों के सोपानों पर चढते ही गए। आखिर शुक्लध्यान की स्थिरता बढती ही गई और क्षपक श्रेणी सबकी लगती ही गई। एक बार क्षपक श्रेणी शुरु हो जाय फिर तो सवाल ही कहाँ रहता है । धडाधड कर्म के बंधन तूटते ही जाते हैं । और गुणस्थान चढते ही जाते हैं आप मानो या न मानों, ४९९ वे सभी साधु भी तिल की तरह पीले जाते हुए केवलज्ञान पाते गए और मृत्यु होते ही मोक्ष में जाते गए। एक तरफ दैत्य के जैसा खून का प्यासा पालक खडा है । और दूसरे किनारे पर केवलज्ञान के दाता, मोक्ष दाता आचार्य स्कंदक खडे हैं । एक मारक है दूसरे तारक है। मारक पालक से न डरते हुए और तारक गुरु की शरण स्वीकारते हुए सभी निर्वाण पाते हुए मोक्ष में पहुँच रहे थे। आखिर अन्त में ५०० वे बाल मुनि का नंबर आया। आचार्य ने पालक से कहा कि पहले मुझे पील दो। लेकिन पालक नहीं माना और कहा कि जिसमें आपको ज्यादा दुःख हो उसमें मुझे ज्यादा मजा आती है । इतना कहकर पालक ने बालमुनि को एक धक्का देकर यन्त्र में फेक दिया, और यन्त्र चालु कर पीलने लग गया। आचार्य श्री ने बालमनि को भी इतनी ऊंची साधना कराई... घाणी में पीले जाते हए भी इतनी प्रबल प्रेरणा दी और सीधे शुक्लध्यान के सोपानों पर चढा दिया। परिणाम स्वरूप बाल साधु भी केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए। अन्त में आचार्य श्री की बारी आई। पालक ने आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२७७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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