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________________ उनको भी यन्त्र में डाला । आचार्य श्री अपने क्रोधावेश नरोक सके और निकाचित नियाणा करके स्वर्ग में देव बने । अपनी बाजी सुधार नहीं पाए लेकिन ५०० साधुओं को मोक्ष में पहुंचा सके। सोचिए, जैन शास्त्रों का यह कितना अमर दृष्टान्त है । ऐसी स्थिति में ५०० साधुओं को घाणी में पीलते हुए केवलज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति होनी यह कोई आसान बात नहीं है। हम तो सोच भी नहीं सकते हैं । बुद्धि से कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । फिर भी जैन शासन के इतिहास में बनी हुई यह हकीकत सत्य घटना है । पापी पालक का विचार करने पर बहुत बुरा लगेगा लेकिन... ५०० साधुओं का विचार करने पर मोक्ष का प्रशस्त मार्ग स्पष्ट दिखाई देगा। ऐसे मरणान्त उपसर्ग में आसानी से केवलज्ञान तथा मोक्ष पानेवाले महात्माओं ने यह दिखा दिया है कि... मोक्ष या केवलज्ञान पाना कितना आसान खेल है ? इतनी प्रतिकूलता में इतनी ऊँची साधना और इतनी श्रेष्ठ कक्षा की साधना करना कितनी ऊँची बात है? रस्सी पर नाचते हुए केवलज्ञान- किन किन तरीकों से किनको-किनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ? ऐसे निमित्त-प्रसंग भी इकट्ठे करने जाय तो आश्चर्यों का पार नहीं रहेगा। बात है ईलाचीकुमार की । इलावर्धन नगर के जितशत्रु राजा ने इलादेवी की आराधना से संतान प्राप्ति की। अतः पुत्र का नाम ईलाचीकुमार रखा। बाल्य वय से ही विरक्त पुत्र को रागी बनाने के लिए पिता ने उसे व्यसनियों की संगत में रखा, जिससे पत्र भी दुराचारी बन गया। एक नृत्यकार अपनी पुत्री को नाच नचा रहा था। उस रूपवती युवती को देखकर यौवन की देहली पर पैर रखनेवाला ईलाचीकुमार मोहित हो गया। उसके साथ शादी करने के लिए, उस युवति के पिता की बात मानकर इलाचीकुमार भी नृत्यकला सीखने लगा। बीतते बीतते कई वर्षों का लम्बा काल बीतता गया। और एक दिन शर्त के अनुसार बडे राजा को प्रसन्न करके नर्तन कला में पारितोषिक प्राप्त करने हेतु राज दरबार में राजा के समक्ष नाटक करने का आयोजन किया। राज दरबार में नृत्य की महफिल चलने लगी। हजारों नगरवासी नर-नारी इकट्ठे हो गए। राजा भी अपनी अन्तःपुर की रानियों के साथ नृत्य देखने लगे। कलाओं को दिखानेवाले इलाची ने दो बांसों के बीच रस्सी बांधकर उस पर नाचने लगा। अपनी करतब दिखाते हुए जान की बाजी लगाकर नाचने लगा। लक्ष था कि राजा को प्रसन्न करके बडे ईनाम जीतने। १२७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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