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________________ सुकोशल मुनि “अप्पाणं वोसिरामी” करके कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गए । बस, जो अपनी अंदर की मस्ती में मस्त है, उसका दुनिया भी क्या बिगाड सकती है ? मुनि धडाम से गिर पडे और बाधिनी मांस के टुकडे निकाल निकाल कर खा रही है । मुनि तो बाघिनी को कर्मक्षय में महान उपकारी समझकर बिना किसी द्वेष भाव के देहभाव से ऊपर उठकर आत्मा में तल्लीन हो गए। धर्मध्यान से शुक्लध्यान में प्रवेश करके क्षपक श्रेणी पर आरूढ होकर घाती कर्मों का चकना चूर कर दिया। तथा केवलज्ञान पाकर परमधाम मोक्ष में सिधारे । पुत्र के निमित्त से पिता मुनि कीर्तिधर भी सर्वज्ञता-वीतरागप्ता का आस्वाद चख-कर शाश्वत सुख को प्राप्त करने सिद्धि गति को प्राप्त हुए। श्रीखंधक महामुनि-जैन इतिहास में एक आदर्शभूत श्रेष्ठ दृष्टान्त खंधक महामुनि का है । जितशत्रु राजा और धारिणी देवी के पुत्र खंधक कुमार ने धर्मघोष मुनि के पास दीक्षा अंगीकार की। संसार एवं काया की माया के.त्यागी महात्मा ने उग्र तपश्चर्या करके अपनी काया को अस्थिपंजर मात्र बना दिया। विचरते हुए एक दिन अपनी बहन के श्वसुर गांव में आए । झरोखों से देखकर बहन ने अपने भाई मुनि को पहचाना । मुनि के शरीर को अस्थिशेष देखकर स्त्री-स्वभाव से बहन रोने लगी । बस, इतने में नजर जाते ही राजा ने अनुमान कर लिया- शायद मेरी इस रानी का कोई पूर्व प्रेमी-यार होगा। और यह मेरे राज्य में आया है । क्रोधावेश में वैसे कभी कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। अन्यथा अनर्थ की संभावना रहती है । आखिर राजा ने यही गल्ती की और क्रोधाग्नि से भभकते राजा ने सेवकों को आदेश दिया कि जाओ, उस खंधक मुनि की चमडी उतार कर ले आओ। सेवक आए । मुनिजी कायोत्सर्ग ध्यान में अपनी साधना कर ही रहे थे कि.... राज-सेवकों ने चमडी उतारनी शुरू कर ली । साधक महात्मा ने आँख खोलकर बाहर देखा ही नहीं कि कौन है ? क्या बात है? बस, अंतर्दृष्टा बनकर समस्त लोकालोक का ध्यान करते करते कर्मजन्य संसार के स्वभाव को पहचानते हुए मुनि शुक्लध्यान में सोपान चढते गए। कितनी नरक जैसी असह्य एवं असीम वेदना? और इससे भी हजार गुनी मुनिजी की समता ने कमाल कर दी। बस, आत्मानन्द ही परमानन्द हो, उसे दुःख कहाँ सताता है और देह राग कहाँ फसाता है ? सवाल नहीं था । क्षपक श्रेणी में शुभ अध्यवसायों में चढते हुए मुनि ने सीधे १३ वे गुणस्थान पर पहुँचकर ही विश्राम लिया । आत्मा तो वीतराग-सर्वज्ञ बन गई परन्तु शरीर चमडीविहीन बन गया, रक्त की धाराओं ने देह ही छोड दिया। आखिर पुद्गल परमाणु बिखर ही गए। अब देह टिक ही नहीं सकता तो आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२७५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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