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________________ सागरोपम के लम्बे काल में सर्वप्रथम मोक्ष में जाने का परम सौभाग्य यदि किसी को मिला हो और वह भी किसी स्त्री को मीला हो तो वह मरुदेवी माता को मिला है। माताजी स्वयं तो धन्यधन्य... कृतकृत्य बन ही गई लेकिन... समस्त स्त्रीजाति का भी गौरव भी साथ ही पा गई । एक गृहस्थाश्रमी सन्नारी अबला स्त्री होकर भी हाथी के ऊपर सिंहासन में बैठी–बैठी मार्ग में जाती हुई केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पर अपना नाम सुवर्णाक्षर से ऐसा लिखाया है कि आज दिन तक के करोडों-अरबों-खरबों वर्षों के इतिहास में ऐसा दूसरा दृष्टान्त नहीं बन पाया। याद रखिए, एक ऐसा अलग ही स्वतंत्र यह अजीब दृष्टान्त है कि द्रव्य से बाहरी साध्वी बने बिना ही गृहस्थाश्रमी अवस्था में मोक्ष में गई। लेकिन भाव से सभी गुणस्थान पार करती हुई आभ्यंतर सर्वविरतिधर उत्कृष्ट साध्वी पद पर ही मुक्ति पाई। परन्तु आयुष्य शीघ्र ही समाप्त होने के कारण संयम का अवकाश ही नहीं रहा । अनन्त वन्दना हो ऐसी मुक्तात्मा को। ____ ढंढण ऋषी केवली- श्रीकृष्ण वासुदेव की ढंढणा स्त्री से उत्पन्न ढंढणकुमार ने भ० नेमिनाथ की देशना सुनकर दीक्षा ली । अपना पूर्वभव प्रभु के पास श्रवण करके उत्कृष्ट संवेगभाव से अभिग्रह लिया कि...स्वलब्धि से गोचरी मिलेगी तो ही वापरूँगा, अन्यथा नहीं । श्रीकृष्ण के पूछने पर नेमिनाथ भगवान ने बताया कि हे कृष्ण, यह तेरा पुत्र ढंढण मुनि उत्कृष्ट तपस्वी अणगार है । श्री कृष्ण ने हाथी पर से उतरकर उन्हें वंदना की। इस दृश्य को देखकर एक गृहस्थ ने ढंढण मुनि को लड्डु वहोराए । मुनि के प्रभु को पूछने पर पता चला कि यह भी स्वलब्धि का आहार नहीं है । अतः मोदक का आहार परठवने लगे। इतने में पश्चाताप की धारा से ध्यान में आरूढ हो गए। और क्षपकश्रेणी से सीधे १३ वे गुणस्थान पर आकर केवली बनकर मोक्ष में गए। . सुकोशल मुनि को केवलज्ञान- अयोध्या नगरी के कीर्तिधर राजा ने तथा सुकोशल पुत्र ने जैन धर्म की दीक्षा अंगीकार की। दोनों उग्र तपस्वी तपश्चर्या करते थे। तीव्र आर्तध्यान में मृत्यु पाकर महारानी सहदेवी का जीव बाघिनी बना । जंगल में घूमना और गिरिकन्दरा में रहना । दोनों पिता-पुत्र उग्र तपस्वी मुनि ऊँचे भाव से गिरिकन्दरा में चातुर्मास करने पधारे और चारों महीनों के उपवास करके रहे । अन्त में पारणार्थ गांव में भिक्षार्थ निकले । मुनिओं को मार्ग में बाघिनी ने देखा । बस, देखते ही आगे खडे पुत्रमुनि सुकोशल पर बाघिनी ने गर्जना के साथ छलांग लगाई । तपस्वी के शरीर की चमडी अपने पंजों के बाघनख से उतारकर मांस खाने लगी। आत्मसाधना का सुनहरा अवसर देखकर १२७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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