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________________ ही थे । एक दिन स्नानादि करके दिव्य अलंकार धारण करके आरीसा भवन (शीश महल) में वे-बैठे दर्पण में अपना रूप देख रहे थे कि... अचानक अंगुली में से अंगूठी गिर गई। अंगुली पर नजर जाते ही शोभारहित लगी। आखिर पुद्गल के चिन्तन में लीन होने लगे। एक एक करके आभूषण सब उतारते गए । अन्त में पत्ते रहित ढूंठे वृक्ष जैसा शरीर भासमान होने लगा। आखिर इसकी भी पौगलिकता का चिंतन किया। बस, चढ गए ध्यान की धारा में । गृहस्थाश्रमी गृहस्थ की कक्षा के चौथे गुणस्थान से ... आत्मा को ऊपर उठायी... पहुँच गए अपूर्वकरण के द्वार पर...और क्षपकश्रेणी के श्रीगणेश किये ...शुक्लध्यान की धारा की अग्नि की तरह और तीव्र की । परिणाम स्वरूप... ध्यानाग्नि में कर्मों के बंधन तूटते गए और १३ वे गुणस्थान पर पहुँचते ही केवलज्ञान-दर्शन लेकर मोक्ष में पहुँचे । इस तरह ६ खंड के मालिक चक्रवर्ती भी सर्वज्ञ बनकर मोक्ष में गए। __माता मरुदेवी- चक्रवर्ती भरत की दादीजी, भगवान ऋषभदेव की माता... मरुदेवी ...जो अपने पुत्र ऋषभ के संसार त्यागने के कारण पुत्रमोह में व्याकुल बनकर आर्तध्यान करके दिन पसार करती थी । संसार बढानेवाला और कर्म बंधानेवाला आर्तध्यान बहुत लम्बे काल तक चलता रहा । नित्य अपने लाडले ऋषभ की चिन्ता करती विलाप करती। माता ने पुत्र वियोग में मोहवश आंखों की ज्योति भी कम कर दी । तथा रोज भरत को उपालम्भ देती थी। आखिर एक दिन भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान प्राप्त होने पर.. . भरतजी माताजी को गजराज के ऊपर सिंहासन में बिठाकर लेकर पिता प्रभु के दर्शनार्थ निकला । मार्ग में ही दूर से समवसरण तथा देवताओं एवं अतिशयों को देखकर भरतजी माताजी के सामने वर्णन करते थे। इस वर्णन को सुनकर तथा समीप पहुँचते ही कर्णप्रिय दैवी दुंदुभि का नाद सुनकर माताजी मरुदेवी... अनित्यादि एकत्वादि भावनाओं का चिन्तन करती हुई भाव-विभोर बन गई। और क्षपकश्रेणी लग गई। बस, फिर तो पूछना ही क्या... सीधे ही १३ वे गुणस्थान पर पहुंच गई और केवलज्ञानादि की अनन्त चतुष्टयी प्राप्त हो गई । एक तरफ कैवल्यश्री पाई । इतने में ही आयुष्य भी समाप्त होने का काल आया । और जीवन दीपक बुझ गया । अन्तर्मुहूर्त काल मात्र का यह खेल कि...मोह में लिप्त माता ने भी बाजी बदल दी और केवलज्ञान पाकर मोक्ष भी पा लिया । यदि अन्तर्मुहूर्त काल का विलम्ब हुआ होता तो केवलज्ञान पाए बिना मृत्यु होती तो और किसी अन्य गति में जाकर जन्म धारण करना पडता। लेकिन सौभाग्यवती माताजी ने अंतर्मुहूर्त के अल्प काल में ही खेल पूरा कर लिया, केवलज्ञान पा लिया। अब तो दूसरी गति का सवाल ही नहीं उठता है। मोक्ष निश्चित ही होता है। इस अवसर्पिणी काल के १० कोडाकोडी आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२७३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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