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________________ है। तथा केवलज्ञान रूप सूर्य के प्रगट होने से मति आदि चारों ज्ञान अदृश्य हो जाते हैं। जैसे सूर्य के प्रगट होने से सभी तारों का प्रकाश सूर्य के तेज में समा जाता है । तारे अदृश्य हो जाते हैं । दिन में सूर्य की उपस्थिति में दिखाई नहीं देते हैं। अदृश्य रहते हैं। ठीक उसी तरह केवलज्ञान रूपी सूर्य के उदय अर्थात् प्रगट होने पर शेष सभी चारों ज्ञानों का प्रकाश केवलज्ञान में समा जाता है । अतः केवलज्ञान के प्रगट होने के बाद मति श्रुत आदि ज्ञानों का स्वतंत्र कोई अस्तित्व रहता ही नहीं है। केवलदर्शन___याद रखिए.. जैसा केवलज्ञान गुण है वैसा ही केवलदर्शन भी गुण है । अन्तर . सिर्फ इतना ही है कि- ज्ञान से जानने का कार्य होता है । जबकि दर्शन से देखने का काम होता है । ये दोनों सहभू हैं। साथ ही उत्पन्न होनेवाले साथ ही रहनेवाले हैं। अतः इनमें भेद नहीं है। फिर भी ये दोनों स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। केवलज्ञान से सब कुछ जाना जाता है जबकि केवलदर्शन से सब कुछ प्रत्यक्ष देखा जाता है । बस, मात्र इतने से अन्तर के सिवाय सबकुछ समान ही है । यह भी अनन्त है । द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावादि भेदों से, इन निक्षेपों की दृष्टि से ये सभी अनन्त हैं । याद रखिए, जिस समय आत्मा केवलज्ञानी है उसी समय केवलदर्शनी भी है। केवलज्ञान जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा संपूर्ण क्षय से प्राप्त होता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा संपूर्ण क्षय से केवल दर्शन गुण प्रगट होता है । इसे अनन्त दर्शन भी कहते हैं। यह भी क्षायिक भाव से प्रगट होता है । उपशम-क्षयोपशम आदि अन्य किसी भी भाव से प्रगट नहीं होता है । याद रखिए. .. उपशम श्रेणीवाले साधक को केवलज्ञान या केवलदर्शनादि कोई भी गुण अंश मात्र भी प्राप्त नहीं होते हैं । वीतरागता जो प्राप्त होती है वह भी मात्र अल्पकालिक है, क्षणजीवी है। क्योंकि वहाँ ११ वे गुणस्थान पर कर्मों का क्षय ही नहीं होता है, मात्र उपशमन होता है। दब जाते हैं, शान्त हो जाते हैं। इसलिए उपशमन करनेवाले जीव के लिए केवलज्ञान-केवलदर्शनादि गुणों की तो कल्पना भी नहीं करनी चाहिए । १३ वे गुणस्थान का वैभव कुछ अद्भुत अनोखा ही है । अनन्त काल के बाद जो प्राप्त हुआ है वह अनन्त स्वरूप में प्राप्त हुआ है । अतः ज्ञान दर्शनादि अनन्त रूप में है। १३ वे गुणस्थान के अधिष्ठाता १३ वे गुणस्थान सयोगी केवलीपने को प्राप्त करनेवालों में एक तो तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करनेवाली आत्मा है। जो क्षपक श्रेणी प्रारंभ कर उसी प्रक्रिया से चारों घाती आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२६७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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