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________________ एक परमाणु छिप सकता है और न ही अलोक का कोई कोना छिप सकता है । अर्थात् सभी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। ये ही सर्वज्ञ भगवन्त अघाती कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर ले तो वहाँ सिद्धावस्था में भी केवलज्ञान वही है । कोई फरक नहीं पडता है । १४ राज लोक के ऊपरी अग्र भाग पर स्थित देहरहित विदेही सिद्ध अशरीरी आत्मा मात्र स्वरूप में रहकर भी अपने अनन्त ज्ञान से समस्त लोक एवं अनन्त अलोक को समान रूप से देखते हैं। बस, ऐसे अनन्तज्ञानियों के रहने का क्षेत्र समग्र लोकरूप संसार में सिर्फ दो ही हैं, एक २॥ द्वीप के अन्दर १५ कर्मभूमियों का तथा दूसरा सिद्धशिला का । बस, इसके अतिरिक्त अन्य कोई क्षेत्र स्थान है ही नहीं कि जहाँ वे रहे । ऐसे अपने सीमित परिमित क्षेत्र में रहकर भी सर्वज्ञ प्रभु समस्त लोक–अलोक को जानते-देखते हैं। ऐसा केवलज्ञान त्रिकालाबाधित है। . अर्थात् तीनों काल में कोई भी इस ज्ञान को बांध नहीं सकता है। अतः केवलज्ञान-त्रैकालिक है । भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों काल का समूहात्मक ज्ञान केवलज्ञान है । अनन्त भूतकाल का भी केवली आज जानते हैं तथा अनन्तकाल तक के भविष्य काल की सभी बातों को केवली जानते हैं । तथा अनन्त वर्तमान काल भी भगवान जानते हैं । वर्तमान काल को अनन्त कहना उचित नहीं है लेकिन वर्तमान काल की एक क्षण में जितने अनन्त जीव हैं उन अनन्त जीवों के प्रत्येक क्षण के भावों परिणामों व प्रवृत्ति आदि को अच्छी तरह जानते हैं केवली प्रभु । इसलिए इसे त्रैकालिक कहते हैं। ' "हस्तामलकवत् कैवल्यम्" जैसे कि हम अपने हाथ में एक आंवला को लेकर खडे रहे और उसे कैसे चारों तरफ से देखते हुए एक ही साथ में उसके आकार, रूप, रंग, रस आदि के ज्ञान को एक साथ समझते-जानते हैं । ठीक उसी तरह केवली सर्वज्ञ प्रभु के लिए समस्त लोक और अलोक मानों उनके हाथ में है और वे चारों तरफ से चारों निक्षेपों आदि से बरोबर जानते हैं । सर्वांशिक संपूर्ण रूप से जानते हैं । इसलिए उनको पूर्ण संपूर्ण ज्ञान है। __ याद रखिए, केवलज्ञान ही अपने आप में पूर्ण-संपूर्ण है । जबकि शेष चारों ज्ञान केवलज्ञान की तुलना में अपूर्ण-अधूरे हैं । जैसे सूर्य और तारों में जिस प्रकार की विषमता है वैसा ही प्रमाण यहाँ ५ ज्ञानों में है । १) मति, २) श्रुत, ३) अवधि और ४) मनःपर्यवज्ञान ये ४ ज्ञान ताराओं के प्रकाश की तरह अधूरे-अपूर्ण हैं । आंशिक ज्ञानवाले हैं । इन ४ ज्ञानों का प्रकाश ताराओं की तरह टिमटिमाता हआ अल्प मात्रा में रहता है। जबकि सूर्यसमान तेजस्वी केवलज्ञान है । केवलज्ञान सूर्यप्रकाश की तरह सर्वत्र प्रसारित होता १२६६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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