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________________ .......... 'अनन्त' भाव अलोक केवल ज्ञान लोक 'अनन्त' अलोक केवली सिद्ध - लोक । केवल ज्ञान ही ज्ञान है । इसलिए केवल ज्ञान शब्द का प्रयोग किया है । इसे ही अनन्त बताया है । अनन्त शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त है । यह विशेषण अपने विशेष्य ऐसे ज्ञान की द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से सीमा बताता है । द्रव्य के विषय में ज्ञान अनन्त की सीमा पार करता है । अतः असीम- अमाप है । केवली के अनन्त ज्ञान में एक भी द्रव्य - पर्यायादि छिपी नहीं रह सकती । नहीं छूटती । क्षेत्र से लोक और अलोक सर्वत्र सर्व क्षेत्र को जानते व देखते हैं । काल से अनन्त काल तक रहनेवाला होने के कारण अकाल या कालातीत ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । भाव से अनन्त जीवों के भावों को जानते-समझते हैं । ऐसे केवलज्ञानी सर्वज्ञ भगवान होते हैं । मनुष्य क्षेत्र में । सदेह रूप में, देहधारी अवस्था में तो मात्र २ ॥ द्वीप में सिर्फ १५ कर्मभूमियों में ही होते हैं । यहीं केवलज्ञान पाते हैं । I अलोक अन्यत्र समस्त लोक में कहीं नहीं । वे इन २ ॥ द्वीप के १५ कर्मभूमियों में जहाँ हों वहाँ से अपने केवलज्ञान के 'कारण समस्त लोक और अलोक में भी देख सकते हैं- जान सकते हैं । उनके अनन्त ज्ञान से न तो लोक का आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२६५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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