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________________ यदि ज्ञान को हटा दिया जाय तो कितना भयंकर अनर्थ हो जाता है, इस सत्य को समझना ही चाहिए। यदि बिना ज्ञान का ध्यान होगा तो वह कैसा होगा? उस ध्यान को भी अज्ञान ध्यान ही कहना पडेगा । व्यवहार नय से ऐसी ध्यानसाधना शारीरिक एवं मानसिक फायदा अच्छा करती है :- और यही आज के वर्तमान काल में कई बन बैठे गुरुओं ने जो जो ध्यानपद्धतियाँ समाज में रखी है वे प्रायः शारीरिक एवं मानसिक फायदाकारक ज्यादा सिद्ध हुई हैं। चाहे वह विपश्यना के नाम से पहचानी जाय या अन्य किसी भी नाम से पहचानी जाय । लेकिन आत्मा की गहराई में जो न ले जा सके...आत्म गुणों की स्वानुभूति जो न करा सके, जो देहादि का संबंध भी न छुडा सके, अरे ! मन का भी संबंध छुडाना चाहिए । मन साध्य नहीं है, यह तो साधन मात्र है । यह नहीं भूलना चाहिए । मात्र मन को ही साधना है, वश करना है, मन को ही मारना है, इत्यादि बातें प्राथमिक कक्षा की हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन ये अन्तिम लक्ष्य नहीं है। ध्याता साधक मात्र यहाँ तक ही आकर रुक जाय और थोडी देर के लिए संकल्प-विकल्प रहित मन हो जाय और यदि यही कहते रहे कि मैंने ध्यान साध लिया है, मुझे प्रतीति–अनुभूति काफी ऊँची कक्षा की हो चुकी है तो वह भ्रान्ति-भ्रमणा में ही रह जाएगा। याद रखिए मृगमरीचिका के दिखाई देने में सच्चे जल का कोई अंशमात्र भी संबंध नहीं है । यह तो भ्रान्ति है-भ्रमणा है । ठीक इसी तरह थोडी सी मन की कहीं स्थिरता देखी कि बस, उसे ध्यान मान लेना यह कहाँ तक उचित है ? इसलिए मात्र मन को साधना ही इतिश्री नहीं है । अभी आगे काफी ज्यादा बढना है। ध्यान का शब्दार्थ शब्द एवं अर्थ की व्युत्पत्तियों का जो अजोड खजाना है ऐसा संस्कृत वाङ्मय अनेक प्रकार के कोषों का मूलभूत भण्डार है। अभिधान आदि कोषों में ध्यान शब्द की उत्पत्ति “ध्यै" धातु से बनी है । यह “ध्यै" धातु चिन्ता एवं ध्यान करने अर्थ में । इसलिए धात्वर्थ साथ में देते हुए कहा है कि- “ध्यै–चिन्तायाम्” “ध्यै-ध्याने" ऐसा धात्वर्थ दिया है । लक्षण या व्याख्या करते समय “ध्यायते-चिन्त्यते अनेन तत्त्वमिति ध्यानम्" । जिससे तत्त्वों का चिन्तन, ध्यान किया जाय वह ध्यान कहलाता है । चिन्तन भी कैसा? इसके लिए स्पष्टीकरण किया है कि- “एकाग्रचित्तनिरोधो ध्यानं” चित्त जो मन है उसकी एकाग्रतापूर्वक चित्त को रोककर तत्त्वचिन्तन किया जाय वह ध्यान है। बात भी सही है, यदि एकाग्रता न रखी जाय, या एकाग्रतापूर्वक चित्त को रोका न जाय तो ध्यान नहीं कहलाएगा। किसमें रोकना है ? तत्त्व के चिन्तन में । यहाँ निरोध शब्द रोकने के अर्थ में ९८८ . आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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