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________________ प्रयुक्त है । अर्थात् यह चित्त दो प्रकार का हुआ १) अनिरोध चित्त और २) निरोध चित्त । १) पहला जो तत्त्व में नही रोका हुआ, नहीं रुका हुआ चित्त जो सतत भ्रमणशील है, भटकता ही रहता है । भ्रमणशील होने के कारण वैसा मन तत्त्वों का स्पर्श भी नहीं करता है । संसार में अनन्त पदार्थ हैं। अनन्त वस्तुएँ हैं। उन अनन्त के प्रति प्राप्ति-अप्राप्ति, पसन्द-नापसंदादि की इच्छाएँ बनानेवाला मन एक से दूसरे पदार्थ पर एक से दूसरी वस्तु पर इस तरह छलांगे लगाता हुआ भागता ही रहता है । अतः अनिरुद्ध मन भटकनेवाला दूसरा पुरुषार्थ— प्रयत्नपूर्वक तत्त्वचिन्तन की प्रक्रिया में पिरोया हुआ चित्त थोडी देर तक तत्त्वों के चिन्तन में से आनन्द का आस्वाद ले ले यही निरुद्ध मन है । निरुद्ध अर्थात् निरोध किया हुआ, रोका हुआ, मन है । बस, बाह्य जगत् की अनन्त वस्तुओं पर विचारों के द्वारा भटकनेवाले इस मन को थोडी देर के लिए भी निरुद्ध करके तत्त्वों का चिन्तन करना ही ध्यान है । बस, इस चित्त के थोडी देर भी रुकने की प्रक्रिया को एकाग्रता कहते हैं। आखिर मन के भटकने का तात्पर्य क्या है? तो साफ कहते हैं कि- 'विचार' । बस, विचारों को करते ही रहना । अविरत-सतत विचार को करते ही जाना। इसलिए अविरतता या सातत्यता को सूचित करने के लिए धारा' शब्द जोडकर विचारधारा शब्द • : बनाया गया है । “धारा” शब्द बहती | हुई अखंडितता को सूचित करता है। जो निरंतर बिना टूटे बहती ही रहे, चाहे वह तेल की हो या पानी की, उसमें पदार्थ का कोई महत्व नहीं है । धारा का महत्व है। बहते तेल या नल से बहते पानी की धारा ट्टती नहीं है, ठीक उसी तरह चलते विचारों की धारा नहीं टूटती है। लेकिन इस निरंतर अखंड बहती हुई धारा को ध्यान नहीं कहा जा सकता । इस पहले चित्र में देखिए- धारा एक ही दिखाई देती है। लेकिन उसमें आनेवाले धी नीमरस . का तेल पानी धारा ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास" ९८९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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