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________________ इच्छा । लेकिन जिन-दर्शन-पूजादि को किसी भी दृष्टि से पापकारक नहीं कहा जा सकता । ऐसा कहना यह तो कहनेवाले की पापबुद्धि का सूचक है । बलवत्तर निर्जरा, ध्यान से __ “ध्यानाग्निना दह्यते कर्म” ध्यानरूप अग्नि से कर्म का क्षय-निर्जरा होती है । इसे अग्नि की उपमा दी है। जैसे अग्नि दाहक है, सब कुछ जलाकर भस्मीभूत कर देती है ठीक वैसे ही ध्यानानल भी आत्मा पर लगे हुए सभी कर्मों को जलाकर भस्मीभूत कर देता है। बस, साधक पर आधार है कि वह कितनी बलवत्तरता अपनी ध्यान साधना में लाता है। जैसे चूल्हे पर खिचडी यदि १० किलो के प्रमाण में रखी है तो उसको पकाने के लिए नीचे अग्नि का प्रमाण भी उसके अनुरूप होना तो चाहिए। यदि अप्रमाण अर्थात् जलते अंगारे के कोयले का एक टुकडा मात्र ही है, तो खिचडी होनी संभव ही नहीं है। और अग्नि भी तीव्र ज्यादा है तो खिचडी की परिपक्वता शीघ्र ही हो सकती है । ठीक इसी तरह साधक को कर्मों का प्रमाण देखकर ही उसके अनुरूप सप्रमाणरूप से धर्म करना चाहिए । इस धर्म में यदि साधक की प्रबल इच्छा हो कि मुझे तो हर हालत में अल्प काल में अधिकतम निर्जरा करनी है तो भी ध्यान से वह साध्य है । बस, ध्यानरूपी अग्नि को और ज्यादा तीव्रतर कर दे तो धारणा सफल हो सकती है । और यदि ध्यान की साधना में तीव्रता नहीं आती है तो निश्चित समझिए कि... निर्जरा का प्रमाण भी मर्यादित ही रहेगा। लेकिन एक बात जरूर है कि ध्यान में यह शक्ति जबरदस्त पडी हुई है । इसमें कोई संदेह नहीं है । बशर्ते कि ध्यान सही होना चाहिए । ध्याता सच्चा साधक होना चाहिए। अन्यथा ध्यान प्रक्रिया ही गलत-विपरीत यदि आ गई हाथ में, तो लेने के देने पड़ जाएंगे। अर्थात् निर्जरा की बजाय कर्म का बंध भी भारी हो जाएगा। आखिर निर्जरा या बंध क्या करना यह तो साधक पर आधारित रहता है। क्योंकि ध्यान तो शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष, परमात्मा, आदि अनेकों का होता है। कामी के लिए कामवासना का भी ध्यान होता है । अधर्मी के लिए पाप करने का भी ध्यान होता है। कषायी जीव के लिए क्रोध आदि कषाय करने का भी ध्यान हो जाता है। इसलिए ध्यान कर्म बंधकारक भी है जबकि ध्यान गलत दिशा का विपरीत भी किया जा सकता है । और सही दिशा का परमात्मादि का भी किया जा सकता है । मात्र ध्याता की ज्ञानदशा पर आधार रहता है । इसलिए ध्यान साधना की प्राथमिक भूमिका से ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९८७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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