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धर्मसंस्थापक तीर्थंकर भगवान ने पंचाचार रूप धर्मों की जो व्यवस्था की है वह एक मात्र निर्जरा के लिए ही की है। इन पंचाचारों के जितने भी अवान्तर प्रकारों की व्यवस्था आचारात्मक रूप से की है उन सभी धर्मों से निर्जरा - कर्मक्षय करना ही चाहिए। एक भी धर्म का प्रकार ऐसा नहीं है कि जो कर्मक्षय - निर्जरा न कराए। हाँ, यदि करनेवाले जीवों
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करना ही न आए तो बात अलग है । जो भी कोई निर्जरा न कर सके तो वे संवर करे, या फिर शुभ पुण्याश्रव करे । जिसको जो करना हो वह करे। लेकिन सर्वप्रथम साध्य तो निर्जरा करने का ही है । ऐसे ज्ञान से वंचित रहनेवाले सामान्य कक्षा के जीव.. पुण्योपार्जन करके ही संतोष मान लेते हैं, वे आगे बढना ही नहीं चाहते हैं । जैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के विद्यार्थी होते हैं । कोई पासिंग मार्क पर ही उत्तीर्ण होना चाहते हैं, आगे बढने की उनकी तनिक भी इच्छा नहीं रहती है। दूसरा ५०%, तीसरा ६०%, चौथा प्रथम श्रेणी में ... और आगे बढनेवाले शतप्रतिशत गुणांक प्राप्त करने में ही संतोष मानते हैं। ठीक उसी तरह कुछ धर्मिष्ठ आराधक मात्र पासिंग मार्कवाले की तरह शुभ पुण्योपार्जन कर लिया उतने में ही राजी रहते हैं । कुछ पुण्य और निर्जरा के बीच संवर है । जो मात्र नए पाप कर्मों के आगमन का अवरोधक है, उसी के आधार पर संतोष मान लेता है । चाहे निर्जरा हो या न हो, उसको उससे कोई मतलब ही नहीं है । लेकिन एक साधक निर्जरा के ही लक्ष्यवाला है । वह किसी भी प्रकार का थोडा बहुत भी धर्म करता है तो कर्मक्षय - निर्जरा करने का ही एकमात्र लक्ष्य रखता है । बस, उसी में ही संतोष मानता है । उसमें भी तीव्रता के लक्ष्यवाला और ज्यादा प्रमाण में निर्जरा करने का लक्ष्य रखता है । धर्माचरण तो वही है । उपवास तो वही एक ही है । जो सब करते हैं वही उसने भी किया है। लेकिन कर्मक्षय निर्जरा की मात्रा कम-ज्यादा रहती है। जैसे रोटी तवे पर रखकर गेस पर सेकी जाती है । उसमें जितने प्रमाण में ताप कम-ज्यादा होगा उतने प्रमाण के आधार पर.. . जल्दी या विलम्ब से सेकी जाएगी। कम-ज्यादा समय जो लगेगा उसका आधार ताप पर है । ठीक उसी तरह निर्जरा का आधार धर्माचरण में रखे गए निर्जरा के लक्ष्य से धर्म में जिसमें जितनी ज्यादा तीव्रता होती है उसी के आधार पर कम-ज्यादा निर्जरा होगी । एक व्यक्ति उपवास करके भी सो जाता है और दूसरा उपवास करके कायोत्सर्ग और ध्यान की भी साधना करता है । वह प्रमाण में बहुत ज्यादा निर्जरा करेगा ।
जिनेश्वर परमात्मा की पूजा, भक्ति और दर्शन करने की धर्माराधना भी निर्जराकारक है । नाग जैसे ने प्रभु की फुलपूजा करके काफी ज्यादा प्रमाण में कर्म - निर्जरा की । लेकिन कोई निर्जरालक्षी न भी हो और वह मात्र पुण्योपार्जन ही करना चाहे तो उसकी
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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