SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "ध्यान” का है । यद्यपि परमात्मा सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने पंचाचारात्मक समग्र धर्म के अनेक प्रकार जो भी दर्शाए हैं वे सब निर्जराकारक ही हैं। निर्जरा कराने के एकमात्र लक्ष्यवाले हैं। निर्जरा अर्थात् “कर्मक्षय” (१) दर्शनाचार २) ज्ञानाचार ३) चारित्राचार ४) तपाचार ५) वीर्याचार HA AVE - नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियमुवओगो अएअंजीवस्स लक्खणं ॥ नवतत्त्वकार स्पष्ट लिखते हैं कि- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये आत्म के प्रमुख लक्षण हैं। बस, इन गुणों को ही आचरण में लाना, गुणों पर लगे हुए कर्मावरण का क्षय-निर्जरा करने के लिए इन्हीं गुणों के पोषकों का आचार रूप में पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । इसीलिए धर्म को गुणात्मक साधना कहा है । आत्मा पर लगे हुए आवरणों का क्षय करना ही धर्मरूप प्रक्रिया का हेतु है। और ये आवरण क्या है? कर्म के बने हुए आच्छादक आवरक ही आवरण हैं । जैसे-जैसे, जितने-जितने प्रमाण इन गुणाच्छादक-गुणांवरक कर्मों का छेद–क्षय होगा वैसे वैसे, उतने-उतने प्रमाण में आत्मा के ज्ञानादि गुण प्रकट होते जाएंगे। यह निर्जरा कर्मक्षय से जन्य है। अतः कर्मक्षय-निर्जरा करना ही धर्म है । चरम लक्ष्यरूप है। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९८५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy