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________________ तीर्थंकरत्व सदा ही सबमें समान रहता है। जैसे कि- केवलज्ञान, केवलदर्शन सबमें समान ही रहता है । वीतरागता अर्थात् राग-द्वेष-रहितता भी सबकी एक जैसी ही समान रहती है । अनन्त वीर्यता, अनन्त दानादि शक्ति भी एक जैसी समान ही रहती है । तीर्थंकर नामकर्म के पुण्योदय की समानता भी सब में एक जैसी ही रहती है । समवसरण की रचना भी सबके लिए एक जैसी ही होती है । अष्टप्रातिहार्य ३४ अतिशयादि भी सबके एक जैसे समान ही होते हैं । तथा सभी तीर्थंकरों के उपदिष्ट तत्त्व में जीवादि नौं तत्त्वों, उत्पादादि त्रिपदी, अनेकान्तादि सिद्धान्त पद्धति, आत्मा, परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों का स्वरूप भी सभी एक समान ही होता है । इसलिए ऐसी सादृश्यता के कारण शाश्वतता आती है । इसीलिए कहते हैं कि... आगे चौबीशी हुई अनन्ती, वलीरे होशे वार अनन्ती। (अरिहंत) नवकार तणी कोइ आदि न जाणे, एम भाखे अरिहंत रे ।। भूतकाल में २४-२४ तीर्थंकर भगवन्तों की एक-एक चौबीशी ऐसी अनन्त चौबीशियाँ हुई हैं। बीत चुकी हैं। इसी तरह आगे के भविष्यकाल में भी ऐसी अनन्त चौबीशियाँ होगी (होनेवाली हैं)। भूतकाल में भी अनन्त तथा भविष्यकाल में भी अनन्त होंगी। अतः उतनी अनन्तानंत चौबीशियों तक नवकार, अरिहंतादि शाश्वत रूप से सदा ही नित्य रहता है । ऐसी अनन्तता, समानता तथा शाश्वतता एक जैसी ही रहती है। इसके आधार पर गुणस्थानों के सोपानों पर आरोहण होने की प्रक्रिया भी शाश्वत है । समान रूप से सभी गुणस्थान पर आरोहण करने की प्रक्रिया भी समान ही है, अर्थात् गुणस्थानों पर चढने की आरूढ होने की प्रक्रिया मिथ्यात्व से सम्यक्त्व, फिर देशविरतिधर श्रावक, फिर प्रमत्त साधु छट्टे गुणस्थान पर बनना, फिर आगे अप्रमत्त साधु बनकर ध्यानादि करना, फिर ८ वे गुणस्थान से क्षपक श्रेणी का शुभारंभ करना, फिर.... कर्मक्षय करते-करते ८ से नौंवे, फिर १० वे फिर १२ वे गुणस्थान पर आकर वीतराग बनना, फिर १३ वे गुणस्थान पर आकर तीर्थंकर, या सामान्य सर्वज्ञादि बनना, फिर अन्त में १४ वे गुणस्थान पर होकर निर्वाण पाकर, मोक्ष में जाकर सिद्ध बनना, अनन्त जीवों के लिए अनन्त कालीन एक जैसी समान ही प्रक्रिया है । उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। भेद नहीं रहता है । इस तरह गुणस्थानों का यह मार्ग शाश्चत एवं समान-सदृश है । किसी भी काल में कभी भी रत्तीभर भी अन्तर पडनेवाला ही नहीं है। ऐसी अनन्तकालीन शाश्वतता एवं समानता को अच्छी तरह समझकर हमें भी आज यही विचार करना चाहिए कि... जो हमें भविष्य में कभी न कभी करना ही है। आखिर भविष्य में अनन्त जन्मों के पश्चात् १२४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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