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भावनानुसार प्रबल पुरुषार्थ करके ... जगत के जीवों को देशनादि देकर तारते हैं और उनका कल्याण करते हैं ।
जैन धर्म में भगवान बनने की प्रक्रिया-पद्धति इस प्रकार की बताई है । परन्तु जगत् शेष किसी भी धर्म में ऐसी भगवान बनने की कोई प्रक्रिया बताई ही नहीं है । ऐसी कोई पद्धती है ही नहीं । क्योंकि उस धर्मों में ऐसा सिद्धान्त है कि जगत् का कोई जीव भगवान
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ही नहीं सकता है। किसी को भी अधिकार ही नहीं है । इसलिए सवाल ही नहीं उठता है । जैन धर्म में कोई भी भव्यात्मा इस प्रक्रिया से भगवान बन सकती है । क्योंकि आत्माएँ आत्मस्वरूप से सभी एक जैसी ही हैं। एक समान ही हैं । आत्मगुणों की समानता सादृश्यता के कारण किसी भी एक भव्य जीव से दूसरे में कोई भेद नहीं है । यदि महावीर इस प्रक्रिया पर चलते चलते तीर्थंकर भगवान बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं बन सकते ? जरूर बन सकते हैं ।
संसार की सभी आत्माएँ आत्मत्व जाति की अपेक्षा एक समान - एक जैसी हैं I आत्मगुणों से भी एक समान - एक जैसी ही हैं तथा आत्मा पर लगे आठों कर्म भी सबके एक जैसे - 1 - एक समान ही हैं तथा कर्मक्षयकारक धर्म करने में धर्म की भी एकवाक्यता—एकसमानता है । तथा कर्मक्षय के पश्चात् उत्पन्न आत्मगुणों में भी एक जैसी समानता रहती है । इसी कारण संसार में जितने भी अरिहंत हुए हैं, तीर्थंकर भगवान हुए हैं, वे सभी अपने अपने आत्मगुणों के प्रादुर्भाव के कारण एक जैसे समान ही होते हैं । इसलिए आदिनाथ से शान्तिनाथ पार्श्वनाथ या महावीर तक के सभी तीर्थंकर एक जैसे समान ही होते हैं। किसी से किसी में अंशमात्र भी भेद या अन्तर होता ही नहीं है । सभी एक सरीखे समान ही होते हैं ।
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एक समान सदृश शाश्वतता
चाहे भूतकाल में कितने भी तीर्थंकर हुए हो, या चाहे वर्तमान काल में विचरते हुए हो, या चाहे भविष्यकाल में होनेवाले भी हो लेकिन सभी तीर्थंकरों का स्वरूप एक समान एक जैसा ही होता है । एक से दूसरे तीर्थंकर में आत्मगुणों की उपलब्धि में रत्तीभर भी अन्तर नहीं होता है । जी हाँ, बाह्य-अन्तर जो शरीर नामादि जन्य है उसमें यदि अन्तर रहता भी है तो इसमें वह बाधक नहीं बनता है । जैसे कि शरीर की ऊँचाई में कम-ज्यादा प्रमाण हो, आयुष्य भी कम-ज्यादा हो, तथा नामादि भिन्न हो, शरीर का रूप-रंग भिन्न होता है । इस प्रकार की भिन्नता हो, ऐसा अन्तर हो, इसमें कोई आश्चर्य ही नहीं है । लेकिन
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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