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१९३५५ महीने बीच में पारणे करते-करते नंदनराजर्षी ने इतने १ लाख वर्षों के आयुष्य काल में ११८०६४५ मासक्षमण की सुदीर्घ घोर तपश्चर्या करके विशस्थानक तप करते हुए साथ ही साथ सर्व जीवों के कल्याण की उत्तम भावना का चिन्तन करते हुए तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। और इसके परिणाम स्वरूप अन्तिम २७ वे भव में तीर्थंकर महावीर के नाम से भगवान बने । इसीलिए सभी जीव तीर्थंकर नहीं बन पाते हैं । जो विशस्थानकों की आराधना करें और साथ ही साथ सर्वजीवकल्याण की भावना का सतत चिंतन करते हुए चूंटे तब जाकर कोई विरल जीव तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करता है। तब जाकर भगवान बनता है।
“सवि जीव करूँ शासन रसी” की भावना
विशस्थानक विधिए तप करी, ऐसी भावदया दिलमां धरी। जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूँ शासन रसी॥
शुचिरस ढलते तिहाँ बाँधता, तीर्थंकर नाम निकाचता॥ . पूज्यश्री वीरविजयजी महाराज स्नात्र पूजा की ढाल में लिखते हैं कि... विधिपूर्वक वीशस्थानक की तपश्चर्या-आराधना करते करते दिल में ऐसी भावदया का चिंतन करते हैं कि- यदि मुझे ऐसी प्रबल शक्ति मिले तो मैं जगत के सभी जीवों का कल्याण करूं। यह जो जिन शासन है, आत्मानुशासन रूप धर्म मार्ग है, इसके अनुरागी सबको बना दूँ, ताकि सबका कल्याण हो जाय । “मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुखिनः।" इस संसार में कोई भी जीव पाप न करे, पाप करके अशुभ कर्म उपार्जन न करे, और परिणाम स्वरूप कोई दुःखी न हो जाय । इस तरह की उत्कृष्ट भावना अखण्ड रूप से मन में घुटते रहते हैं। देखिए, प्रार्थना कितनी प्रबल शक्तिशाली होती है? कल्पना नहीं कर सकेंगे। यह भावना या प्रार्थना भी कोरी नहीं है, यह भी सार्थक, सहेतुक है । इस प्रार्थना के अनुरूप वीशस्थानक की उग्र तपश्चर्या भी करते हैं । परिणाम स्वरूप बाह्य-आभ्यंतर दोनों साधना के एक रूप होने पर... शुचिरस... पवित्र रस आत्मप्रदेशों में झरता है । ऐसे शुचिरस से वह साधक तीर्थंकर नामकर्म की पुण्य प्रकृति बांधता है । इसी से तीर्थंकर बनना निश्चित होता है । परिणाम स्वरूप १ जन्म बीच में देव या नारकी का स्वकृत कर्मानुसार करके तीसरे अन्तिम जन्म में तीर्थंकर भगवान बनते हैं। एक पहला जन्म तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करने का, दूसरा जन्म बीच के देव जन्म का तथा अन्तिम जन्म तीर्थंकर बनने का इस तरह ३ जन्म होते हैं। तीसरे जन्म में तीर्थंकर भगवान बनकर पूर्व की अपनी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा